________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१९ सकलशास्त्रार्थोद्देशकरणार्थमादिवाक्यमित्यपि फल्गुप्रायं, तदुद्देशस्याप्रमाणात् प्रतिपत्तुमशक्तेस्तल्लक्षणपरीक्षावत् / ततो नोद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति त्रिविधा व्याख्या व्यवतिष्ठते। समासतोऽर्थप्रतिपत्त्यर्थमादिवाक्यं, व्यासतस्तदुत्तरशास्त्रमित्यप्यनेनैव प्रतिक्षिप्तमप्रमाणाव्यासत इव समासतोप्यर्थप्रतिपत्तेरयोगात्।स्याद्वादिनां तु सर्वमनवचं तस्यागमानुमानरूपत्वसमर्थनादित्यलं . प्रसंगेन। - ननु च तत्त्वार्थशास्त्रस्यादिसूत्रं तावदनुपपन्नं प्रवक्तृविशेषस्याभावेपि प्रतिपाद्यविशेषस्य च कस्यचित् प्रतिपित्सायामसत्यामेव प्रवृत्तत्वादित्यनुपपत्तिचोदनायामुत्तरमाह - __ “सम्पूर्ण शास्त्र के प्रतिपाद्य-विषय का संक्षेप से नाम मात्र कथन करने के लिए आदिवाक्य लिखा जाता है" इस प्रकार कहना भी प्रायः व्यर्थ ही है- क्योंकि जैसे अप्रमाणभूत वाक्य से किसी वस्तु का लक्षण और परीक्षा नहीं की जा सकती है, उसी प्रकार अप्रामाणिक वाक्य से संक्षिप्त अर्थ के कथन का निर्णय करना भी अशक्य है। अर्थात् उद्देश्य, लक्षण-निर्देश और परीक्षा तो प्रामाणिक वाक्य से ही करना सब दार्शनिकों को इष्ट है। अतः प्रमाणता के निर्णय के बिना उद्देश्य, लक्षण, परीक्षा इस प्रकार तीन प्रकार से व्याख्या करना व्यवस्थित नहीं हो सकता है। ... "संक्षेप से अर्थ का ज्ञान कराने के लिए 'श्रीवर्द्धमानं' इत्यादि आदिवाक्य है, तथा विस्तार रूप से अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) कराने के लिए उत्तरशास्त्र (पूरा ग्रंथ) है," इस प्रकार कहने वाले का भी पूर्वोक्त कथन से खण्डन हो जाता है। क्योंकि जैसे अप्रामाणिक ज्ञान से विस्तार रूप (पूर्ण) ग्रन्थ के अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही अप्रमाणभूत प्रथम वाक्य के द्वारा संक्षेप से भी पदार्थ का निर्णय नहीं हो सकता। स्याद्वाद सिद्धान्त के मानने वाले जैनधर्मावलम्बियों के तो सर्व पूर्वोक्त कथन निर्दोष सिद्ध हैं, क्योंकि इनके सिद्धान्त में आदि के प्रयोजन वाक्य 'श्रीवर्द्धमानं' के आगम एवं अनुमान रूपत्व का सम्यक् प्रकार से समर्थन किया गया है, अधिक विस्तार-कथन से क्या प्रयोजन है। तत्त्वार्थसूत्र की प्रामाणिकता शंका - तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक के प्रयोजनवाक्य की प्रमाणता तो तब सिद्ध होगी, जब तत्त्वार्थ सूत्र की प्रमाणता सिद्ध होगी। अभी तो तत्त्वार्थशास्त्र का आदिसूत्र (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि मोक्षमार्गः) ही सिद्ध नहीं है, क्योंकि विशिष्ट वक्ता तथा किसी विशिष्ट शिष्य के सुनने की इच्छा के अभाव में ही इस सूत्र की रचना हुई है। अर्थात् विशिष्ट वक्ता के द्वारा श्रद्धापूर्वक सुनने वाले प्रगाढ़ शिष्य की इच्छा होने पर जो वचन बोला जाता है वही प्रमाणभूत होता है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के आदिवाक्य की अनुपपत्ति की शंका करने वाले को आचार्य उत्तर देते हैं।