________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१८ तदित्येके। तदप्यनेनैव निरस्तं, तस्य प्रमाणत्वाप्रमाणत्वपक्षयोस्तदुत्पादकत्वायोगात्। अर्थसंशयोत्पादनार्थं तदित्यप्यसारं, क्वचिदर्थसंशयात् प्रवृत्तौ प्रमाणव्यवस्थापनानर्थक्यात् / प्रमाणपूर्वकोर्थसंशयः प्रवर्तक इति प्रमाणव्यवस्थापनस्य साफल्ये कथमप्रमाणकात् प्रयोजनवाक्यादुपजातोर्थसंशयः। प्रवृत्त्यंग विरुद्धं च संशयफलस्य प्रमाणत्वं विपर्यासफलवत्, स्वार्थव्यवसायफलस्यैव ज्ञानस्य प्रमाणत्वप्रसिद्धः। ये त्वाहुर्यनिष्प्रयोजनं तन्नारंभणीयं यथा काकदंतपरीक्षाशास्त्रं निष्प्रयोजनं चेदं शास्त्रमिति। व्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानात्प्रतिव्यापकानुपलब्धेरसिद्धतोद्भावनार्थ प्रयोजनवाक्यमिति। तेपि न परीक्षकाः / स्वयमप्रमाणकेन वाक्येन तदसिद्धतोद्भावनाऽसंभवात्, तत्प्रमाणत्वस्य परैर्व्यवस्थापयितुमशक्तेः। "वाच्यार्थ (प्रयोजन) में संशय उत्पन्न करने के लिए आचार्य ने शास्त्र की आदि में प्रयोजनवाक्य का कथन किया है" ऐसा भी कहना निस्सार है . क्योंकि अर्थ के संशय से ही कहीं शास्त्र में प्रवृत्ति होने लगे तो प्रमाण तत्त्व की व्यवस्था मानना व्यर्थ हो जायेगा। “प्रमाणपूर्वक (प्रामाणिक) ज्ञान से उत्पन्न अर्थ संशयगत वाक्य में प्रवृत्ति कराता है" ऐसा प्रतिपादन भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाणव्यवस्था की सफलता में अप्रामाणिक प्रयोजनवाक्य से उत्पन्न अर्थसंशय प्रयोजन वाक्य की प्रवृत्ति का कारण कैसे हो सकता है। अपना और अपने अर्थ-विषय के निश्चय रूप फल को करने वाले ज्ञान की ही प्रमाणता सिद्ध हो जाने पर विपरीत फल वाले (विपरीत) ज्ञान की तरह संशय फल वाले (सांशयिक) ज्ञान के प्रमाणता मानना विरुद्ध है - अर्थात् जिस प्रकार विपरीत ज्ञान प्रामाणिक नहीं है, उसी प्रकार संशय ज्ञान भी प्रमाणभूत नहीं है। प्रश्न - जिस प्रकार काकदन्त की परीक्षा करने वाला शास्त्र निष्प्रयोजनीय होने से अनारंभणीय (प्रारम्भ करने योग्य नहीं) है, उसी प्रकार यह श्लोकवार्तिकशास्त्र भी निष्प्रयोजनीय होने से अनारम्भणीय है। क्योंकि व्यापकानुपलब्धि के द्वारा (इसमें व्यापक की अनुपलब्धि है इस प्रकार के कथन द्वारा) प्रत्यवतिष्ठमानों (इसमें प्रयोजन की सिद्धिका ज्ञान न होने से यह शास्त्र आरम्भ करने योग्य नहीं है, ऐसा कहने वालों) के प्रति व्यापकानुपलब्धि से असिद्धता का उद्भावन करने के लिए प्रयोजनवाक्य कहा गया है - अर्थात् प्रयोजन की सिद्धि नहीं होने से ग्रंथ के आरंभ में प्रयोजनवाक्य भी नहीं कहना चाहिए ऐसा कहने वालों के प्रति प्रयोजन के नहीं होने की असिद्धि को प्रकट करने के लिए प्रयोजनवाक्य कहा गया है; ऐसा जो कहते हैं, उनके प्रति आचार्य कहते हैं - उत्तर - ऐसा कहने वाले भी परीक्षक नहीं हैं क्योंकि स्वयं अप्रमाणभूत प्रयोजनवाक्य के द्वारा जातिवाद दोष उठाने वालों के प्रति असिद्धता का उद्भावन असंभव है (अर्थात् अप्रामाणिक प्रयोजनवाक्य से जातिवादी के उठाये हुए दोष की असिद्धि कैसे हो सकती हैं?) तथा अभी तक प्रयोजन वाक्य की प्रमाणता को व्यवस्थित करने के लिए स्याद्वाद के विरोधी समर्थ नहीं हैं।