________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -17 परार्थानुमानमादौ प्रयोजनवचनमित्यपरे। तेऽपि न युक्तिवादिनः, साध्यसाधनयोाप्तिप्रतिपत्तौ तर्कस्य प्रमाणस्यानभ्युपगमात् / प्रत्यक्षस्यानुमानस्य वा तत्रासमर्थत्वेन साधयिष्यमाणत्वात् / ये त्वप्रमाणकादेव विकल्पज्ञानात्तयोाप्तिप्रतिपत्तिमाहुस्तेषां प्रत्यक्षानुमानप्रमाणत्वसमर्थनमनर्थकमेव, अप्रमाणादेव प्रत्यक्षानुमेयार्थप्रतिपत्तिप्रसंगात् / ततो न प्रयोजनवाक्यं स्याद्वादविद्विषां किंचित्प्रमाणं प्रमाणादिव्यवस्थानासंभवाच्च न तेषां तत्प्रमाणमिति शास्त्रप्रणयनमेवासंभवि विभाव्यता, किं पुनः प्रयोजनवाक्योपन्यसनं ? श्रद्धाकुतूहलोत्पादनार्थं अर्थात् पुरुषकृत आगम की प्रमाणता एकान्तवादियों के न तो स्वतः सिद्ध है और न परतः / कोई (वैशेषिक) कहते हैं कि श्लोकवार्तिकग्रन्थ के प्रारम्भ में कथित विद्यास्पद हेतु से सज्ज्ञान की प्राप्ति और कर्मों के नाश रूप साध्य का ज्ञान कराने वाला, प्रयोजन का प्रतिपादक वाक्य परार्थानुमान है। परन्तु उनका यह कथन युक्तिसिद्ध नहीं है अर्थात् ऐसा कहने वाले युक्तिवादी नहीं हैं क्योंकि साध्य और साधन की व्याप्ति को ग्रहण करने में तर्कज्ञान को स्वीकार न करने से उस प्रयोजनवाक्य में प्रत्यक्ष एवं अनुमान ज्ञान का समर्थन नहीं होता। उसका हम आगे खण्डन करेंगे। अर्थात् जो साध्य-साधन के व्याप्ति ज्ञान को ग्रहण करने वाले तर्कज्ञान को नहीं मानते हैं उनके प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान में भी प्रमाणता नहीं आ सकती। जो (बौद्ध) अप्रमाणभूत (साध्य और साधन के साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं रखने वाले) सविकल्प व्याप्तिज्ञान से साध्य और साधन के अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान होता है, ऐसा कहते हैं उनके प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान के प्रमाणत्व का समर्थन करना व्यर्थ होता है क्योंकि जैसे अप्रामाणिक तर्कज्ञान से साध्य-साधन में अविनाभाव का ज्ञान सिद्ध होता है, उसी प्रकार अप्रामाणिक प्रत्यक्ष एवं अनुमान ज्ञान के द्वारा भी अनुमेय एवं प्रत्यक्ष पदार्थ के जानने का प्रसंग आयेगा। अतः प्रमाण आदि की व्यवस्था की असंभवता होने से स्याद्वाद सिद्धांत से द्वेष करने वालों (बौद्ध, मीमांसकादि) के प्रयोजनवाक्य 'यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः' किसी भी प्रकार से प्रमाण रूप नहीं है तथा उन स्याद्वाद सिद्धान्त से द्वेष करने के कारण प्रमाण प्रमेय आदि पदार्थ की सिद्धि न होने से प्रयोजन वाक्य भी प्रमाण नहीं है अत: ऐसी अवस्था में शास्त्र की रचना ही असंभव है तो प्रयोजनवाक्य के कथन की तो बात ही क्या, अर्थात् शास्त्र की रचना ही नहीं हो सकती, प्रयोजन का कथन तो दूर रहा। ___ 'शिष्यों को शास्त्र के प्रति श्रद्धा एवं कौतुक उत्पन्न कराने के लिए ग्रन्थ की आदि में प्रयोजन वाक्य का प्रयोग किया जाता है' ऐसा कहने वालों का भी पूर्वोक्त कथन से खण्डन हो जाता है - क्योंकि प्रयोजन वाक्य के प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व इन दोनों पक्षों में से किसी भी पक्ष को स्वीकार करने पर प्रयोजनवाक्य में श्रद्धा एवं कौतुक का उत्पादकपना नहीं बन सकता है।