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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 16 सोऽपौरुषेयः पौरुषेयो वा? न तावदाद्यपक्षकक्षीकरणं “अथातो धर्मजिज्ञासा" इति प्रयोजनवाक्यस्यापौरुषेयत्वासिद्धः। स्वरूपेऽर्थे तस्य प्रामाण्यानिष्टेश्चान्यथातिप्रसंगात्। पौरुषेय एवागमः प्रयोजनवाक्यमिति चेत् / कुतोऽस्य प्रामाण्यनिश्चयः / स्वत एवेति चेत्, न, स्वतः प्रामाण्यकांतस्य निराकरिष्यमाणत्वात् / परत एवागमस्य प्रामाण्यमित्यन्ये, तेषामपि नेदं प्रमाणं सिद्ध्यति। परतः प्रामाण्यस्याऽनवस्थादिदोषदूषितत्वेन प्रतिक्षेप्स्यमानत्वात् प्रतीतिविरोधात् / साधन वाक्य का भी सकल शास्त्र के व्याख्यान द्वारा समर्थन किया जाता है और कहीं पर प्रयोजनवाक्य का कथन करके समर्थन किया जाता है। अतः एकान्त नहीं है कि उक्त प्रयोजन वाक्य का समर्थन किया जाय, अनुक्त का नहीं। इस अनेकान्तवाद के कथन में स्याद्वादियों का विरोध नहीं है। (एकान्त में ही विरोध है।) परवादियों के यहाँ प्रयोजन-वाक्य की असिद्धि ___ प्रयोजनवाक्य को अप्रमाण मानने से सर्वथा एकान्तवादी बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक आदि के शास्त्रों में प्रयोजन-वाक्य का कथन करना युक्त नहीं है। प्रश्न - प्रयोजन कहने वाले वचन को हम आगम प्रमाण मानते हैं? उत्तर - यदि आप प्रयोजन कहने वाले वचन को आगम से प्रमाण मानते हैं तो वह आपका आगम अपुरुषकृत है कि पौरुषेय है. (पुरुष का बनाया हुआ है?) इनमें आदिपक्ष स्वीकार करना तो कि “आगम किसी पुरुष विशेष का बनाया हुआ नहीं है" उचित नहीं है क्योंकि मीमांसा दर्शन में 'अथातो धर्मजिज्ञासा' यहाँ से धर्म जानने की इच्छा हुई' यह सूत्र है। इसमें 'अथ' शब्द है - वह प्रयोजनवाक्य के अपौरुषेयत्व की असिद्धि का सूचक है अर्थात् अनादि वस्तु में 'अथ' शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। उन मीमांसकों की स्वरूप अर्थ में (अद्वैतस्वरूप अर्थ के अस्तित्व के सूचक) प्रयोजन को कहने वाले वाक्यों में ही प्रमाणता इष्ट नहीं है, क्योंकि अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् मीमांसक कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वेदवाक्यों के सिवाय दूसरों को प्रमाण नहीं मानते हैं और अपौरुषेय भी नहीं मानते हैं। यदि और वाक्यों को भी प्रमाण मानेंगे तो सब वेदवाक्यों में प्रमाणता सिद्ध हो जायेगी अर्थात् अद्वैतवाद-सर्वज्ञवाद भी सिद्ध हो जायेगा। ___ यदि पुरुषकृत आगम से प्रयोजनवाक्य को प्रमाण मानते हो तो उस पुरुषकृत आगम में प्रमाणता का निश्चय किस से होता है? 'स्वतः ही आगम की प्रमाणता का निश्चय होता है' ऐसा तो कह नहीं सकते क्योंकि स्वत: प्रमाण के एकान्त का हम आगे निराकरण करेंगे। यदि प्रयोजनवाक्यों का कथन करने वाले पुरुषकृत आगम को पर से प्रमाण मानते हैं तो भी उनके प्रमाणसिद्धता नहीं हो सकती क्योंकि परतः प्रामाण्य के, अनवस्था-परस्पराश्रय-चक्रक आदि दोषों से दूषित होने से खण्डित होने और प्रतीति के विरुद्ध होने से प्रमाणता सिद्ध नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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