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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२१ स्वस्वभावापरित्यागात्। संस्काराधानकाले प्राच्याश्रावणत्वस्वभावस्य परित्यागे श्रावणस्वभावोपादाने च शब्दस्य परिणामित्वसिद्धिः, पूर्वापरस्वभावपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणत्वात्परिणामित्वस्य। तथा च वचनस्य किमभिव्यक्तिपक्षकक्षीकरणेन, उत्पत्तिपक्षस्यैव सुघटत्वात् / शब्दाद्भिन्नोऽभिन्नश्च संस्कारः प्रणेतृव्यापारेणाधीयत इति चेत् / न / सर्वथा भेदाभेदयोरेकत्वविरोधात् / यदि पुनः कथंचिदभिन्नो भिन्नश्च शब्दात् संस्कारस्तस्य तेनाधीयत इति मतं, तदा स्यात्पौरुषेयं तत्त्वार्थशासनमित्यायातमहन्मतम्। ____ननु च वर्णसंस्कारोऽभिव्यक्तिस्तदावारकवाय्वपनयनं घटाद्यावारकतमोपनयनवत्तिरोभावश्च तदावारकोत्पत्तिर्न चान्योत्पत्तिविनाशौ शब्दस्य तिरोभावाविर्भावौ कौटस्थ्यविरोधिनौ येन परमतप्रसिद्धिरिति चेत् तर्हि किं कुर्वन्नावारकः शब्दस्य वायुरुपेयते? न तावत्स्वरूपं नहीं होते थे, उसी प्रकार सर्वकाल में ही उन शब्दों के अश्रवण का प्रसंग आयेगा अर्थात् सर्वथा संस्कारभिन्न होने से कभी भी सुनाई नहीं देंगे। अथवा स्व-स्वभाव का अपरित्याग होने से वर्तमान के समान उन शब्दों को भूत और भविष्यत्काल में भी सुनने का प्रसंग आएगा। अर्थात् संस्कार से सर्वथा भिन्न शब्द हैं तो उनकी हमेशा अस्तित्व होने से वक्ता के व्यापार के बिना भी वे श्रवणगोचर होते रहेंगे। : यदि कहो कि संस्कारों के धारण करते समय शब्द पूर्व की अश्रावण (सुनाई नहीं देने योग्य) अवस्था का त्याग कर श्रवणगोचर अवस्था के वर्तमान में धारण करता है तो शब्द के परिणामीपना सिद्ध होता है। क्योंकि पूर्व अवस्था (पर्याय) का छोड़ना, उत्तर स्वभाव (पर्याय) को ग्रहण करना और मूलभूत द्रव्य स्वभाव का अवस्थित रहना ही परिणामित्व का लक्षण है। तथा 'च' शब्द की अभिव्यक्ति के पक्ष को स्वीकार करने से क्या लाभ है - वक्ता के व्यापार से शब्द की उत्पत्ति ही सुघट है। अर्थात् वक्ता के व्यापार से ही शब्द की उत्पत्ति माननी चाहिए। प्रश्न- वक्ता के व्यापार से होने वाले संस्कार शब्द से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। उत्तरऐसा कथन करना उचित नहीं है क्योंकि सर्वथा भेद और अभेद मानने पर शब्द और संस्कार में एकत्व का विरोध आता है। अर्थात् भेद और अभेद में एकपना नहीं हो सकता। यदि वक्ता के व्यापार से उत्पन्न हुआ शब्द-संस्कार शब्द से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है, ऐसा मानते हो तो “तत्त्वार्थ शास्त्र भी कथंचित् (पद, वाक्य आदि की अपेक्षा) पुरुषकृत है" इससे अर्हत्मत की सिद्धि होती है। शंकाकार (मीमांसक) कहता है कि जैसे घटादि के आवारक (आच्छादक) अन्धकार के दूर हो जाने पर घट की अभिव्यक्ति होती है, इससे घट का उत्पाद और विनाश नहीं है, उसी प्रकार शब्द को आवृत करने वाली वायु का दूर हो जाना ही शब्द का संस्कार है और वे वर्ण संस्कार ही शब्द की अभिव्यक्ति हैं तथा शब्द के आवरण की उत्पत्ति ही शब्द का तिरोभाव है अतः शब्द से भिन्न आवारक वायु की उत्पत्ति शब्द का तिरोभाव (आवरण) और आवारक वायु का विनाश, शब्द का
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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