________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३८२ ओमिति ब्रुवतः सिद्धं सर्वं सर्वस्य वांछितम्। क्वचित्पर्यनुयोगस्यासंभवात्तन्निराकुलम् // 145 // ततो न शून्यवादवत् तत्त्वोपप्लववादो वादांतरव्युदासेन सिद्धयेत् तथानेकांततत्त्वस्यैव सिद्धेः। शून्योपप्लववादेऽपि नानेकांताद्विना स्थितिः। स्वयं क्वचिदशून्यस्य स्वीकृतेरनुपप्लुते // 146 / / शून्यतायां हि शून्यत्वं जातुचिन्नोपगम्यते। तथोपप्लवनं तत्त्वोपप्लवेऽपीतरत्र तत् // 147 // शून्यमपि हि स्वस्वभावेन यदि शून्यं तदा कथमशून्यवादो न भवेत् / न हम उक्त आपत्तियों को सहर्ष स्वीकार करते हैं क्योंकि तत्त्वों का उपप्लव (नाश) ही हमें इष्ट है। ऐसा कहने वालों के प्रति जैनाचार्य कहते हैं कि- इस प्रकार तो सभी सिद्धान्तवादियों के निराकुल स्वकीय अभीष्ट सर्व तत्त्वों की सिद्धि हो जायेगी। कहीं पर प्रश्न करना संभव नहीं होगा // 145 // अर्थात् जब प्रमाण, प्रमेय, प्रश्न करना, संशय करना आदि की व्यवस्था ही नहीं है तो कोई भी अपनी बात को पुष्ट कर लेगा। इसमें बाधा क्या है। अतः शून्यवाद के समान तत्त्वों का अपलाप करने वाला तत्त्वोपप्लववाद भी सिद्ध नहीं हो सकता है। तथा इससे अनेकान्तवाद की (स्याद्वाद सिद्धान्त की) ही सिद्धि होती है। शून्यवाद और तत्त्वोपप्लववाद में भी अनेकान्त के बिना स्थिति नहीं रह सकती है। क्योंकि शून्यतत्त्व में भी शून्यरहितपना तो स्वयं स्वीकार करना ही पड़ेगा। अर्थात् तत्त्व शून्य है- ऐसा कहने वाले को भी तत्त्व को तो स्वीकार करना ही पड़ता है, क्योंकि तत्त्व के बिना शून्यता किसकी कही जायेगी॥१४६॥ शून्यता में शून्यत्व कभी सिद्ध नहीं हो सकता। अर्थात् शून्यवादियों का शून्यत्व तो शून्य नहीं हो सकता है। शून्य रूप तत्त्व की सिद्धि तो अस्तिरूप ही होती है। उसी प्रकार तत्त्वों का उपप्लव मानने वालों के सिद्धान्त में उपप्लव का उपप्लव (प्रलय) हो नहीं सकता है। इसलिये शून्यवाद में भी शून्यत्व अशून्यत्व सहित होगा तथा उपप्लव एवं अनुपप्लव की सिद्धि होने से अनेकान्त सिद्ध होता है॥१४७॥ शून्य भी यदि स्व स्वभाव से शून्य है तो अशून्यवाद की सिद्धि क्यों नहीं होगी? अर्थात् जैसे घट के अभाव में अघटत्व हो जाता है, उसी प्रकार शून्य को भी स्वभाव से शून्य मानने पर अशून्य की उपलब्धि होगी। 1. 'ओम्' सहर्ष स्वीकार करने में आता है।