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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक-३८१ कथमव्यभिचारित्वं वेदनस्य निक्षीयते? किमदुष्टकारकसंदोहोत्पाद्यत्वेन बाधारहितत्वेन प्रवृत्तिसामर्थ्येनान्यथा वेति प्रमाणतत्त्वे पर्यनुयोगाः संशयपूर्वकास्तदभावे तदसंभवात्, किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्यादेः पर्यनुयोगवत् / संशयश तत्र कदाचित्क्वचिनिर्णयपूर्वकः स्थाण्वादिसंशयवत् / तत्र यस्य क्वचित्कदाचिददुष्टकारकसंदोहोत्याद्यत्वादिना प्रमाणत्वनिर्णयो नास्त्येव तस्य कथं तत्पूर्वकः संशयः, तदभावे कुतः पर्यनुयोगा: प्रवर्तेरन्निति न परपर्यनुयोगपराणि बृहस्पते: सूत्राणि स्युः। (उपप्लववादी कहते हैं-) ज्ञान के अव्यभिचारित्व (निर्दोषता) का निश्चय कैसे होता है? क्या इस ज्ञान के अदुष्ट (निर्दोष) कारणों के समूह के द्वारा उत्पन्न होने से निर्दोषता है? अथवा किसी भी प्रमाण से बाधा न आने से निर्दोषता है? (मीमांसक) वा प्रवृत्ति के सामर्थ्य से इस ज्ञान में प्रमाणता (निर्दोषता) है? (नैयायिक) अथवा अन्यथा (दूसरे प्रकार से अविसंवादी आदि कारणों से) ज्ञान में निर्दोषता है (बौद्ध)। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञान के प्रमाणत्व में प्रश्न उठाना संशयपूर्वक ही हो सकता है। संशय के अभाव में उक्त प्रश्नमाला का उठना असंभव है। जैसे कि यह स्थाणु (सूखे वृक्ष का ढूंठ) है या पुरुष? इत्यादि प्रश्न संशय के बिना उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। जहाँ कहीं भी किसी पदार्थ का आश्रय लेकर किसी को संशय होता है, उस पदार्थ का पूर्व में कभी-न-कभी किसी स्थल पर निर्णय अवश्य कर लिया गया है। अर्थात् संशय किसी स्थल पर निर्णीत वस्तु में ही होता है। जैसे जिस किसी मनुष्य ने कहीं भी स्थाणु और पुरुष का पूर्व में निर्णय कर लिया है, वही मनुष्य साधारण धर्मों के प्रत्यक्ष होने पर और विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर तथा विशेष धर्मों का स्मरण होने पर 'यह स्थाणु है कि पुरुष है' इस प्रकार का संशय करता है। अत: संशय पूर्व में निर्णीत की हुई वस्तु में ही होता है। जिसका कभी निर्णय ही नहीं हुआ है, उस वस्तु में संशय नहीं हो सकता है। जिस शून्यवादी का किसी भी प्रमाणव्यक्ति में निर्दोष कारणों से जन्यपने और बाधारहितपने आदि के द्वारा प्रमाणता का निर्णय ही नहीं है तो उसका नैयायिक, मीमांसकों के प्रमाण तत्त्व में संशय उठाना कैसे (उचित) हो सकता है? (पूर्व में कुछ निर्णय को मानकर हुए संशय को कैसे उठा सकते हैं।) विशेष धर्मों के द्वारा संशय उठाना सामान्य प्रमाण की स्वीकृति को इष्ट मानकर विशेष प्रमाण को स्वीकार करना है) संशय करने वाले को संदिग्ध विषयों का किसी स्थल पर कभी निर्णय करना अति आवश्यक है। तभी संशय के समय विशेष धर्मों का स्मरण होता है। - किसी स्थल में कभी जिसका निर्णय नहीं किया गया है, उसका प्रश्न उठाकर संशय करना कैसे बन सकता है? तथा जब संशय नहीं हो सकता है तब प्रमाण, प्रमेय वादियों के प्रति उपप्लववादियों के प्रश्नों की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? इस प्रकार दूसरे आस्तिकों के द्वारा इष्ट किये गये प्रमाण, प्रमेय पदार्थों का खण्डन करने के लिये वृहस्पति के सूत्र दूसरे मतों के प्रति कुशंका करने में समर्थ नहीं हो सकते। उपप्लववादी (तत्त्वों को नहीं मानने वाले चार्वाक) कहते हैं कि हमारे यहाँ प्रमाण प्रमेय आदि का निर्णय नहीं है- अतः संशय भी नहीं है? प्रश्नों की प्रवृत्ति भी नहीं होवे? चार्वाक के सूत्र भी दूसरों के ऊपर प्रश्न नहीं उठा सके, इसमें हमारी कोई क्षति नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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