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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 380 तत्स्वसंवेदनं तावद्यधुपेयेत केनचित् / संवादकत्वतस्तद्वदक्षलिंगादिवेदनम् / / 142 // प्रमाणानिशितादेव सर्वत्रास्तु परीक्षणम्। स्वेष्टेतरविभागाय विद्या विद्योपगामिनाम् // 143 // स्वसंवेदनमपि न स्वेष्टं निर्णीतं येन तस्य संवादकत्वात्तत्त्वतः प्रमाणत्वे तद्वदक्षलिंगादिजनितवेदनस्य प्रमाणत्वसिद्धेर्निशितादेव प्रमाणात् सर्वत्र परीक्षणं स्वेष्टेतरविभागाय विद्या प्रवर्तेत तत्त्वोपप्लववादिनः, परपर्यनुयोगमात्रपरत्वादिति कशित्। सोऽपि यत्किंचनभाषी, परपर्यनुयोगमात्रस्याप्ययोगात्। तथाहि यस्यापीष्टं न निर्णीतं क्वापि तस्य न संशयः / तदभावे न युज्यंते परपर्यनुयुक्तयः // 144 // किसी उपाय के द्वारा संवेदन का निर्णय करना यदि बौद्ध स्वीकार करते हैं और सफल प्रवृत्ति को कराने वाले संवादकपने से उस स्वसंवेदन को ही प्रमाण सिद्ध करते हैं, तब तो उसी के समान इन्द्रियों से जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को और हेतु से जन्य अनुमान ज्ञान को तथा शब्दजन्य आगम ज्ञान आदि को भी प्रमाण स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि निश्चित प्रमाण से ही सब स्थानों पर तत्त्वों का परीक्षण होता है। उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान को स्वीकार करने वाले वादियों के यहाँ प्रमाण रूप विद्या ही अपने इष्ट और अनिष्ट पदार्थ के विभाग करने के लिए समर्थ होती है। अविद्या स्वयं तुच्छ है। अत: वह इस इष्ट-अनिष्ट का विभाग नहीं कर सकती है।।१४२-१४३॥. . (पदार्थों को सर्वथा नहीं मानना शून्यवाद है, और विचार से पूर्व व्यवहार रूप से सत्य मानकर विचार होने पर सर्वप्रमाण, प्रमेय पदार्थों का न स्वीकार करना तत्त्वोपप्लववाद है।) कोई तत्त्वोपप्लववादी कहता है कि हम स्वसंवेदन को भी प्रमाणस्वरूप से इष्ट होने का निर्णय नहीं कर सकते हैं और अद्वैतवादियों के मूल संवेदन को भी नहीं मानते हैं, जिससे जैन यह कह सकें कि संवादकत्व होने से उस संवेदन को वास्तविक रूप से प्रमाणता मान लोगे तो उसी के समान इन्द्रिय, हेतु और शब्द से उत्पन्न हुए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ज्ञानों को भी प्रमाणता सिद्ध हो ही जावेगी और निश्चित प्रमाण के द्वारा ही सब ही स्थलों पर परीक्षा हो करके अपने इष्ट अनिष्ट तत्त्वों के विभाग के लिए सम्यग्ज्ञान ही प्रवर्तेगा। हम वितण्डावादी हैं। दूसरे के माने हुए तत्त्वों में कुशंका उठाकर उनका खण्डन करने में ही तत्पर रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई उपप्लववादी का सहायक कह रहा है। किंतु वह निष्प्रयोजन बकवाद करने की टेव रखता है। क्योंकि प्रमाण का निर्णय किये बिना दूसरे वादियों के तत्त्वों पर खण्डन करने के लिए केवल प्रश्नों की भरमार या आक्षेप उठाना भी तो नहीं बन सकेगा। इसी बात को आचार्य महाराज स्पष्ट कर दिखलाते हैं जिसके यहाँ कोई भी इष्ट तत्त्व निर्णीत नहीं किया गया है, उसको कहीं भी संशय करना नहीं बन सकता है और संशय के अभाव में दूसरे वादियों पर कुशंकाएँ करना भी तत्त्वोपप्लववादियों के न बन सकेगा।॥१४४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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