________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-८ शास्त्रत्वोपचारात् / ह यत्पुनादशांगं . श्रुतं तदेवंविधानेकशास्त्रसमूहरूपत्वान्महाशास्त्रमनेकस्कन्धाधारसमूहमहास्कंधावारवत् / येषां तु शिष्यंते शिष्याः येन तच्छास्त्रमिति शास्त्रलक्षणं, तेषामेकमपि वाक्यं शास्त्रव्यवहारभाग भवेदन्यथाऽभिप्रेतमपि माभूदिति यथोक्तलक्षणमेव शास्त्रमेतदवबोद्धव्यं / ततस्तदारंभे युक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानम्। . ____ अथवा, यद्यपूर्वार्थमिदं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकं न तदा वक्तव्यं, सतामनादेयत्वप्रसंगात्, स्वरुचिविरचितस्य प्रेक्षावतामनादरणीयत्वात् / पूर्वप्रसिद्धार्थं तु सुतरामतन्न वाच्यं, पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यादिति बुवाणं प्रत्येतदुच्यते / “विद्यास्पदं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकं प्रवक्ष्यामीति।" विद्याः पूर्वाचार्यशास्त्राणि सम्यग्ज्ञानलक्षणविद्यापूर्वकत्वात्ता एवास्पदमस्येति विद्यास्पदम्। न ... उत्तर - उन शास्त्रों में भी तत्त्वार्थ का एकदेश विषय होने से उनके भी उपचार से शास्त्रत्व है। जिस प्रकार अनेक स्कन्धों का आधारभूत स्कन्ध महास्कन्ध कहलाता है, उसी प्रकार अनेकविध शास्त्रों का समुदाय रूप होने से द्वादशांगश्रुत महाशास्त्र है; जिसके द्वारा शिष्य शिक्षित किये जाते हैं वा जिसके द्वारा शिष्यों पर अनुशासन किया जाता है, वह शास्त्र है, ऐसा शास्त्र का लक्षण जिनके किया जाता है, उनके तो एक वाक्य भी शास्त्र के व्यवहार को धारण करने वाला हो जाता है अर्थात् उनके एक वाक्य भी शास्त्र बन जाता है क्योंकि एक वाक्य से भी तो शिष्यों को शिक्षा मिलती है। अन्यथा विवक्षित ग्रन्थ भी शास्त्र नहीं हो सकता। अतः यथोक्त (पद, वाक्य, सूत्र, प्रकरण, आह्रिक, अध्याय आदि का समूह) लक्षण वाला ही शास्त्र है, ऐसा जानना चाहिए। अतः इस श्लोकवार्तिक शास्त्र के प्रारम्भ में परापर गुरु के प्रवाह का ध्यान, चिन्तन, आदर करना उपयुक्त ही है। प्रस्तुत ग्रंथ की सार्थकता और प्रयोजन यहाँ तर्क यह है कि यदि यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक अपूर्व अर्थों को व्यक्त करने वाला है तब तो (ग्रन्थकार को यह ग्रन्थ) नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा होने पर सज्जनों के द्वारा अनादेयत्व (ग्रहण न करने योग्य) का प्रसंग आता है; क्योंकि जो स्वरुचि से विरचित ग्रन्थ है (पूर्वाचार्यों की आम्नाय के अनुसार नहीं कथित है) वह बुद्धिमानों के द्वारा अनादरणीय होता है और यदि यह श्लोकवार्तिक ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के द्वारा कथित पूर्व के प्रसिद्धार्थों का ही कथन करता है तब तो इसे सर्वथा ही नहीं कहना चाहिए क्योंकि कही हुई बात फिर कहना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही है। इस प्रकार तर्क करने वाले के प्रति आचार्य कहते हैं कि मैं विद्यास्पद तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक कहूंगा। पूर्वाचार्य कथित शास्त्र ही विद्या कहलाते हैं। सम्यग्ज्ञान लक्षण वाली विद्या से उत्पन्न वे शास्त्र ही इस श्लोकवार्त्तिक ग्रन्थ के आधार हैं और पूर्वाचार्य कथित शास्त्र ही जिसका आधार है, वह विद्यास्पद कहलाता है। पूर्वाचार्य कथित शास्त्रों का आलम्बन लिये बिना शास्त्र की रचना नहीं होती - क्योंकि पूर्वाचार्यों के कथन को छोड़कर स्वरुचि से विरचित ग्रन्थ विद्वानों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होता।