SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-७ 'कथं पुनस्तत्त्वार्थः शास्त्रं, तस्य श्लोकवार्तिकं वा, तव्याख्यानं वा, येन तदारंभे परमेष्ठिनामाध्यानं विधीयते?' इति चेत्, तल्लक्षणयोगित्वात् / वर्णात्मकं हि पदं, पदसमुदायविशेषः सूत्रं, सूत्रसमूहः प्रकरणं, प्रकरणसमितिराह्निकं, आह्निकसंघातोऽध्यायः, अध्यायसमुदायः शास्त्रमिति शास्त्रलक्षणम् / तच्च तत्त्वार्थस्य दशाध्यायीरूपस्यास्तीति शास्त्रं तत्त्वार्थः / शास्त्राभासत्वशंकाप्यत्र न कार्याऽन्वर्थसंज्ञाकरणात् / तत्त्वार्थविषयत्वाद्धि तत्त्वार्थो ग्रंथः प्रसिद्धो न च शास्त्राभासस्य तत्त्वार्थविषयताविरोधात्सर्वथैकांतसंभवात्। प्रसिद्धे च तत्त्वार्थस्य शास्त्रत्वे तद्वार्तिकस्य शास्त्रत्वं सिद्धमेव, तदर्थत्वात् / वार्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धं, तत्कथमन्यार्थं भवेत् / तदनेन तद्व्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम् / ततोऽन्यत्र कुतः शास्त्रव्यवहार इति चेत्, तदेकदेशे उत्तर - तत्त्वार्थसूत्र में वा श्लोकवार्तिक में वा भाष्य में शास्त्र का लक्षण घटित होता है, इसलिए यह शास्त्र है। क्योंकि वर्णात्मक पद होता है, पदों का समुदायविशेष सूत्र कहलाता है, सूत्रों का समूह प्रकरण है, प्रकरणों का समूह आह्निक है, आह्रिकों का समूह अध्याय है और अध्यायों का समुदाय शास्त्र कहलाता है; यह शास्त्र का लक्षण है। यह लक्षण दश अध्यायों के समाहार रूप तत्त्वार्थ में घटित होता है इसलिए तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र है। तत्त्वार्थ में शास्त्राभासत्व (शास्त्राभास) की शंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि 'तत्त्वार्थ' यह इसका सार्थक नाम (जैसा नाम वैसा अर्थ) है। तत्त्व करके निर्णीत किये गये जीव आदि अर्थों को विषय करने वाला होने से यह ग्रन्थ तत्त्वार्थ नाम से प्रसिद्ध है, शास्त्राभासों के तत्त्वार्थविषयता नहीं होती। सर्वथा एकान्तवाद की संभावना होने से शास्त्राभास के तत्त्वार्थविषयता का विरोध आता है। तथा 'तत्त्वार्थ' (सूत्र) के शास्त्रत्व की प्रसिद्धि हो जाने पर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के भी शास्त्रत्व सिद्ध हो ही जाता है क्योंकि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र के ही अर्थ का निरूपण करने वाला है। सूत्रों की अनुपपत्ति (असिद्धि) की तथा सूत्रों के अर्थ को न सिद्ध होने देने की तर्कणा करना और उसका परिहार करना वा उनके विशेष अर्थों का प्रतिपादन करना ही वार्तिक कहलाता है। अत: वार्तिक तत्त्वार्थ से पृथक् अर्थात् अन्य पदार्थ को कहने वाला कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं, इससे तत्त्वार्थ के वा श्लोकवार्तिक के व्याख्यान के भी शास्त्रपना निवेदन कर दिया गया है अर्थात् तत्त्वार्थ की व्याख्या भी शास्त्र ही है। ___प्रश्न - इनसे (सूत्र, वार्तिक, व्याख्यान) भिन्न दूसरे प्रवचनों में शास्त्रपने का व्यवहार कैसे होता है?
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy