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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -6 - ननु यथा गुरूपदेशः शास्त्रसिद्धेर्निबंधनं तथाप्तानुध्यानकृतनास्तिकतापरिहार-शिष्टाचारपरिपालनमंगलधर्मविशेषाश्च तत्सहकारित्वाविशेषादिति चेत् / सत्यं / केवलमाप्तानुध्यानकृता एव ते तस्य सहकारिण इति नियमो निषिध्यते, साधनान्तरकृतानामपि तेषां तत्सहकारितोपपत्ते: कदाचित्तदभावेऽपि पूर्वोपात्तधर्मविशेषेभ्यस्तनिष्पत्तेश्च / परापर-गुरूपदेशस्तु नैवमनियतः, शास्त्रकरणे तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वादन्यथा तदघटनात् / ततः सूक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकप्रवचनात् पूर्व श्रेयस्तत्सिद्धिनिबंधनत्वादिति प्रधानप्रयोजनापेक्षया नान्यथा, मंगलकरणादेरप्यनिवारणात् पात्रदानादिवत्। * शंका - जिस प्रकार परापर गुरु का उपदेश शास्त्र-रचना की सिद्धि का कारण है, उसी प्रकार आप्त के ध्यान से किये गये नास्तिकता दोष का परिहार, शिष्टाचार का परिपालन, मंगल और धर्मविशेष(पुण्य) भी शास्त्र की रचना में सहकारी कारण हैं, क्योंकि आप्त के चिन्तन और नास्तिकता के परिहार आदि में सहकारी कारण की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। समाधान - आपका कथन सत्य है, परन्तु केवल आप्त के अनध्यान कत नास्तिकता परिहारादि के ही शास्त्र-रचना में सहकारी कारणपने का नियम है, इसका आपने निषेध किया है क्योंकि साधनान्तर (आप्त के अनुध्यान से भिन्न कारणों) से उत्पन्न शिष्टाचार आदि भी शास्त्र-रचना में सहकारी कारण हो सकते हैं, कदाचित् नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचार के पालन आदि के अभाव में भी पूर्वोपार्जित धर्म (पुण्य) विशेष से शास्त्ररचना आदि कार्य की निष्पत्ति देखी जाती है परन्तु पर-अपर गुरु का उपदेश तो इस प्रकार अनियत नहीं है क्योंकि शास्त्र की रचना में पर-अपर गुरु का उपदेश अवश्य अपेक्षणीय है। पर-अपर गुरु के उपदेश बिना तो शास्त्र की रचना नहीं हो सकती। अतः प्रधान प्रयोजन की अपेक्षा से न कि दूसरे प्रकार से शास्त्र की सिद्धि का कारण होने से तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के प्रवचन के पूर्व पर-अपर गुरुओं के प्रवाह का ध्यान करना कल्याणकारी है, यह ठीक ही कहा है। पात्रदानादि के समान मंगलकरण आदि सहकारी कारणों का भी निराकरण हम नहीं करते हैं। अर्थात् ग्रन्थरचना में पात्र-दानादि अप्रधान अनियम रूप से कारण हैं और गुरुओं का ध्यान प्रधान आवश्यक कारण है। तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक शास्त्र हैं प्रश्न - तत्त्वार्थ (सूत्र) को, उस पर लिखे गये श्लोकवार्तिक को तथा भाष्यरूप व्याख्यान को शास्त्रपना कैसे है; जिससे इस श्लोकवार्तिक के प्रारम्भ में परमेष्ठी का ध्यान किया जाये।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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