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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -5 स्वमतिश्रुतज्ञानावरण-वीर्यान्तराय-क्षयोपशमातिशयाच्चोत्पद्यमानं कथमाप्तायत्तं न भवेत् / यत् चक्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुतं तन्नेह प्रस्तुतं, श्रोत्रमतिपूर्वकस्य भावश्रुतस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य चाप्तोपदेशायत्तताप्रतिष्ठानात्परापराप्तप्रवाहनिबन्धन एव परापरशास्त्रप्रवाहस्तन्निबंधनश्च सम्यगवबोधः स्वयमभिमतशास्त्रकरणलक्षणफलसिद्धरभ्युपाय इति / तत्कामैराप्तस्सकलोऽप्याध्यातव्य एव। तदुक्तं अभिमतफलसिद्धरभ्युपाय: सुबोधः, प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् / इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात् प्रबुद्धे - न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति। कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यश्रुत (शब्द) और भावश्रुत (ज्ञान) गुरु के उपदेश बिना किसी को भी प्राप्त नहीं होते। वचनात्मक द्वादशांग द्रव्यश्रुत तो आप्त (परम गुरु) के उपदेश रूप ही है और उस द्रव्यश्रुत का जो अर्थज्ञान है वह भावश्रुतज्ञान है। अतः ये दोनों, गणधरदेवों को भगवान अरहंत सर्वज्ञ के वचनातिशय से तथा अपने-अपने मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हो जाते हैं तो भावश्रुत और द्रव्यश्रुत आप्त के आधीन कैसे नहीं हैं? अर्थात् दोनों प्रकार काशास्त्र और शास्त्रज्ञान परापर गुरुओं के प्रसाद से ही उत्पन्न होता है। इस पर शंकाकार कहता है कि चक्षु आदि इन्द्रियों से भी तो मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान कहा है तो कहते हैं कि उसका यहाँ प्रकरण नहीं है। यहाँ पर श्रोत्र इन्द्रियपूर्वक होने वाले, मतिज्ञान के पश्चात् होने वाले भावश्रुत का प्रकरण है और भावश्रुतज्ञान आप्त के उपदेश के ही आधीन प्रतिष्ठित है। अतः पर और अपर आप्त का प्रवाह ही इसमें कारण है। तथा परापर शास्त्र का प्रवाह भी परापर गुरु से ही चला आ रहा है, उसी से हम लोगों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति है तथा वही अभीष्ट शास्त्रों की रचना रूप फल की सिद्धि का उपाय है अतः शास्त्ररचना की इच्छा करने वाले विद्वजनों को प्रथम सकल (परापर) आप्तों (गुरुओं) का यानी सर्वज्ञदेव से लेकर अब तक के यथार्थ वक्ता श्रीगुरुओं का ध्यान - आदर, नमस्कारादि करना ही चाहिए। कहा ' भी है कि - शास्त्र के प्रारम्भ में आप्त परमादरणीय हैं अभीष्ट (इच्छित) फल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है। वह सम्यग्ज्ञान आप्तवचन कथित शास्त्र से उत्पन्न होता है और उस शास्त्र की उत्पत्ति आप्त (सर्वज्ञदेव गणधरदेव आदि) से होती है अतः आप्त के प्रसाद से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने वाले विद्वानों को वे गुरु ही पूजनीय होते हैं क्योंकि साधु लोग - किये हुए उपकार को नहीं भूलते हैं अर्थात् आप्त से शास्त्र की उत्पत्ति हुई और शास्त्र से हमें सम्यग्बोध हुआ, उसमें मुख्य कारण आप्त होने से वह शास्त्र के प्रारम्भ में परम आदरणीय है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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