SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-९ पूर्वशास्त्रानाश्रयं, यतः स्वरुचिविरचितत्वादनादेयं प्रेक्षावतां भवेदिति यावत् / पिष्टपेषणवद्व्यर्थं तथा स्यादित्यप्यचोधं, “आध्यायघातिसंघातघातनमिति" विशेषणेन साफल्यप्रतिपादनात्। धियः समागमो हि ध्यायः। आसमंताध्यायोऽस्मादित्याध्यायं तच्च तद्घातिसंघातघातनं चेत्याध्यायघातिसंघातघातनं। यस्माच्च प्रेक्षावतां समंततः प्रज्ञासमागमो यच्च मुमुक्षून स्वयं घातिसंघातं घ्नतः प्रयोजयति तन्निमित्तकारणत्वात् / तत्कथमफलमावेदयितुं शक्यं / प्रज्ञातिशयसकलकल्मषक्षयकरणलक्षणेन फलेन फलवत्त्वात्। कुतस्तदाध्यायघातिसंघातयातनं सिद्धं? विद्यास्पदत्वात् / यत्पुनर्न तथाविधं, न तद्विद्यास्पदं यथा पापानुष्ठानमिति समर्थयिष्यते। विद्यास्पदं कुतस्तदिति चेत्, श्रीवर्धमानत्वात् / प्रतिस्थानमविसंवादलक्षणया हि श्रिया वर्धमानं कथमविद्यास्पदं नामातिप्रसंगात् / तदेवं सप्रयोजनत्वप्रतिपादनपरमिदमादिश्लोकवाक्यं तथा (यह आक्षेप भी ठीक नहीं है कि) पिष्टपेषण के समान यह व्यर्थ है। क्योंकि 'आध्याययातिसंघातघातन' इस विशेषण से इस ग्रन्थ की सफलता का प्रतिपादन किया गया है। अर्थात् यह ग्रन्थ पाठक के घातिकर्म का नाशक होने से पिष्टपेषण की तरह निष्फल नहीं है। धी यानी बुद्धि का समागम ही ध्याय कहलाता है। 'आ' समन्तात् यानी चारों तरफ से बुद्धि का आगमन हो उसको आध्याय कहते हैं और श्लोकवार्तिक के अध्ययन से होने वाली ज्ञान की वृद्धि घातिकर्म के समूह का घात करने वाली होने से यह ग्रन्थ आध्यायघातिसंघातघातन कहलाता है। क्योंकि जिस कारण इस ग्रन्थ से बुद्धिमानों के समंतात् अर्थात् चारों ओर से प्रज्ञा का समागम होता है और वह घातिकर्मों के समुदाय के घात करने का निमित्त होने से, स्वयं घातिकर्मों का घात करने वाले मुक्ति के इच्छुक जीवों को घातिकर्मों का घात करने के लिए प्रेरित करता है, तब इस तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ को (पिष्टपेषण के समान व्यर्थ होने से) निष्फल कैसे कह सकते हैं? नहीं कह सकते हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ प्रज्ञा के अतिशय और सर्व कल्मषों (आत्मिक विकारों) के क्षय-लक्षणफल से फलवान है अर्थात् इसके अध्ययन का फल है प्रज्ञा (तत्त्वज्ञान) की वृद्धि और सर्व कल्मषों का क्षय। प्रश्न - यह ग्रन्थ 'घातिकर्मों के समूह का घातक है' यह कैसे सिद्ध होता है? उत्तर - विद्यास्पद (पूर्वाचार्यों के ज्ञान को आश्रय मान कर लिखा गया) होने से यह घातिया कर्मों के (ज्ञानावरणादि कर्मों के) समूह का घातक है। इसमें अनुमान का प्रयोग करते हैं, जो शास्त्र पुनः घातिकर्मों के संघात का घातक नहीं है, वह विद्यास्पद भी नहीं है यानी पूर्वाचार्यों के ज्ञान के आधीन भी नहीं है जैसे पाप का अनुष्ठान; इसका आगे समर्थन करेंगे। प्रश्न - यह शास्त्र विद्यास्पद कैसे है? उत्तर - श्री से बढ़ रहा होने के कारण यह ग्रन्थ विद्यास्पद (पूर्व ज्ञानियों के अवलम्ब से लिखा गया सिद्ध होता) है। क्योंकि प्रतिस्थान (यानी प्रत्येक स्थल पर) अविसंवाद (निर्दोष) लक्षण रूप श्री के द्वारा वर्धमान होने से यह अविद्या का स्थान (आस्पद) कैसे हो सकता है? यदि निर्दोष श्री से वर्धमान
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy