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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 367 नहि क्षणक्षयकांते सत्येव कारणे कार्यस्योत्पादः संभवति, कार्यकारणयोरेककालानुषंगात् / कारणस्यैकस्मिन् क्षणे जातस्य कार्यकालेऽपि सत्त्वे क्षणभंगभंगप्रसंगाच्च। सर्वथा तु विनष्टे कारणे कार्यस्योत्पादे कथमन्वयो नाम चिरतरविनष्टान्वयवत् / तत एव व्यतिरेकाभावः कारणाभावे कार्यस्याभावाभावात् / स्यान्मतं, स्वकाले सति कारणे कार्यस्य स्वसमये प्रादुर्भावोऽन्वयो असति वाऽभवनं व्यतिरेको न पुनः कारणकाले तस्य भवनमन्वयोऽन्यदात्वभवनं व्यतिरेकः / सर्वथाप्यभिन्नदेशयोः कार्यकारणभावोपगमे कुतोऽग्निधूमादीनां कार्यकारणभावो ? भिन्नदेशतयोपलंभात् / भिन्नदेशयोस्तु कार्यकारणभावे भिन्नकालयोः स कथं प्रतिक्षिप्यते येनान्वयव्यतिरेको तादृशौ न स्यातां / कारणत्वेनानभिमतेऽप्यर्थे स्वकाले सति कस्यचित्स्वकाले भवनमसति वाऽभवनमन्वयो सर्वथा क्षणिकक्षय एकान्त के होने पर (दूसरे समय में सर्व पदार्थ नष्ट हो जाते हैं अत:) उस कारण के होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होना यह अन्वय सम्भव नहीं है। क्योंकि इसमें पहले पीछे होने वाले कारण और कार्यों को एक ही काल में रहने का प्रसंग आता है। यदि पहले एक समय में उत्पन्न हो चुके कारण को उत्तरवर्ती कार्य के समय में भी विद्यमान मानोगे तो क्षणिकत्व सिद्धान्त के भंग हो जाने का प्रसंग आ जावेगा। यदि क्षणिकत्व की रक्षा करोगे तो सर्वथा कारण के नष्ट हो जाने पर कार्य का उत्पादन मानना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में अन्वय कैसे बन सकेगा? जैसे कि बहुत काल पहले नष्ट हो चुके पदार्थ के साथ वर्तमान कार्य का अन्वय नहीं हो सकता है, वैसे एक क्षण पूर्व में नष्ट हो गये कारण के साथ भी अन्वय नहीं हो सकता है और उसी कारण से व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है। क्योंकि कारण के अभाव होने पर कार्य का अभाव नहीं होता है, प्रत्युत कारण के नष्ट हो जाने पर ही कार्य के होने का प्रसंग आता है। बौद्धों का अभिमत- कार्य और कारण का समान देश तथा समान काल होने का कोई नियम नहीं है। कारण का अपने काल में रहने पर कार्य का अपने उचित काल में प्रकट हो जाना तो अन्वय है और अपने काल में कारण के न होने पर कार्य का स्वकीय काल में नहीं उत्पन्न होना ही व्यतिरेक है। परन्तु कारण के समय में उस कार्य का होना यह अन्वय नहीं है, तथा जिस समय कारण नहीं है उस समय कार्य भी उत्पन्न नहीं होता है। यह व्यतिरेक भाव भी नहीं है। (इसी प्रकार कारण के देश में कार्य का होना और जिस देश में कारण नहीं है, वहाँ कार्य न होना, यह अभिन्नदेशता भी कार्यकारणभाव में उपयोगी नहीं है) सर्वथा अभिन्न 'देश वालों का यदि कार्य कारण भाव स्वीकार करेंगे तो अग्नि और धूम (तथा कुलाल और घट) का कार्यकारण भाव कैसे हो सकेगा? क्योंकि वह भिन्न देश में उपलब्ध है जैसे अग्नि तो चूल्हे में है और धुएँ की पंक्ति गृह के ऊपर दिखती है अतः भिन्न देश स्थित कारण भी कार्य का उत्पादक हो सकता है। इस प्रकार जैसे भिन्नदेशवर्ती पदार्थ में कार्य-कारण भाव होता है, वैसे ही भिन्नकालवर्ती पदार्थ में भी कार्य-कारण भाव हो सकता है। उसका खण्डन कैसे कर सकते हैं ? जिससे क्षणिक माने गये भिन्नकालस्थ पदार्थों में वैसा अन्वय व्यतिरेक घटित नहीं हो सकता है अर्थात् भिन्नकालवर्ती पदार्थों में भी अन्वय व्यतिरेक घटित होता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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