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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 366 ततोऽचलात्मनोन्वयव्यतिरेको निवर्तमानौ स्वव्याप्यां कार्यकारणतां निवर्तयतः / तदुक्तं"अन्वयव्यतिरेकाद्यो यस्य दृष्टोनुवर्तकः / स भावस्तस्य तद्धेतुरतो भिन्नान्न संभवः // " इति। न चायं न्यायस्तत्र संभवतीति नित्ये यदि कार्यकारणताप्रतिक्षेपस्तदा क्षणिकेऽपि तदसंभवस्याविशेषात्। तत्र हेतावसत्येव कार्योत्पादेऽन्वयः कुतः। व्यतिरेकश्श संवृत्या तौ चेत् किं पारमार्थिकम् // 126 / / परमाणु, तैजसपरमाणु आदि के साथ नहीं है। जो पदार्थ वहाँ कार्यदेश में नहीं हैं, उन सब का अभाव वहाँ है। वैसा होने पर भी किसी एक विवक्षित नित्य कारण के साथ ही प्रकृत कार्य का मनमाना अन्वयव्यतिरेकभाव सिद्ध करोगे तो सर्व ही नित्य पदार्थों के साथ अन्वयव्यतिरेक भाव की सिद्धि हो जाने का प्रसंग आयेगा। ऐसी अवस्था में कैसे किस कारण का कार्य हो सकेगा? उस कार्य के कारणों का निर्णय न हो सकेगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कूटस्थ नित्य आत्मा से अन्वयव्यतिरेक दोनों निवृत्त होते हुए अपने व्याप्य हो रहे कार्यकारण भाव को भी निवृत्त कर लेते हैं। सो ही कहा है कि जो कार्य जिस कारण का अन्वयव्यतिरेक रूप से अनुसरण करता हुआ देखा जाता है, वह पदार्थ उस कार्य का उस रूप से कारण होता है। अतः जो सर्वथा भिन्न है अर्थात् अपने कतिपय स्वभावों से कार्यरूप परिणत या सहायक नहीं होता है उस कारण से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। किन्तु यह अन्वयव्यतिरेकरूप न्याय वहाँ सर्वथा नित्य में सम्भव नहीं है। अत: यदि कूटस्थ नित्य में कार्यकारणभाव का बौद्ध लोग खण्डन करते हैं, तब तो उनके एकान्त रूप से स्वीकृत क्षणिक पदार्थ में भी अन्वयव्यतिरेक न होने से वह कार्यकारणभाव नहीं हो सकता है। क्योंकि दोनों एक समान हैं। अर्थात् क्षणिक और नित्य में कार्य न कर सकने की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है। ___ यदि वहाँ (क्षणिक एकान्त में) पूर्वक्षणवर्ती हेतु के न रहने पर ही कार्य का उत्पाद होना मानते हैं तो ऐसी दशा में उनमें अन्वय कैसे हो सकेगा? (हेतु के होने पर कार्य के होने को अन्वय कहते हैं। किन्तु बौद्धों ने हेतु के नाश होने पर कार्य होना माना है, अत: उसमें अन्वय नहीं है) और बौद्धों. के यहाँ व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है। क्योंकि कार्यकाल में असंख्य अभाव पड़े हुए हैं। न जाने किसका अभाव होने से वर्तमान में कार्य नहीं हो रहा है) यदि वास्तविक रूप से कार्य-कारण भाव न मानकर कल्पित व्यवहार से उन अन्वयव्यतिरेकों को मानोगे तब तो वास्तविक पदार्थ क्या हो सकेगा? अर्थात् जिसके यहाँ वस्तुभूत कार्यकारण भाव नहीं माना गया है, उसके यहाँ कोई पदार्थ ठीक नहीं बनेगा। अर्थात् बौद्धों के यहाँ वस्तुभूत पदार्थों की व्यवस्था नहीं हो सकती है॥१२६॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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