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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३६५ अन्वयव्यतिरेकाद्यो यस्य दृष्टोनुवर्तकः। स तद्धेतुरिति न्यायस्तदेकांते न संभवी // 125 // नित्यैकांते नास्ति कार्यकारणभावोऽन्वयव्यतिरेकाभावात् / न हि कस्यचिन्नित्यस्य सद्भावोऽन्वयः सर्वनित्यान्वयप्रसंगात्, प्रकृतनित्यसद्भाव इव तदन्यनित्यसद्भावेऽपि भावात्, सर्वथाविशेषाभावात् / नापि व्यतिरेकः शाश्वतस्य तदसंभवात् / देशव्यतिरेकः संभवतीति चेत् न, तस्य व्यतिरेकत्वेन नियमयितुमशक्ते :, प्रकृतदेशे विवक्षितासर्वगतनित्यव्यतिरेकवदविवक्षितासर्वगतनित्यव्यतिरेकस्यापि सिद्धेः। तथापि कस्यचिदन्वयव्यतिरेकसिद्धौ सर्वनित्यान्वयव्यतिरेकसिद्धिप्रसंगात् किं कस्य कार्यं स्यात्? सर्वथा नित्य या क्षणिक पदार्थ में न कार्यकारण भाव बन सकता है न अन्वय व्यतिरेक भाव " जो कार्य जिस कारण के अन्वयव्यतिरेक भाव से अनुकूल आचरण करता हुआ देखा गया है, वह कार्य उसी कारण से जन्य है। इस प्रकार प्रमाणों के द्वारा परीक्षित किया गया न्याययुक्त कार्यकारण भाव उनके एकांत पक्षों में सम्भव नहीं है। (क्योंकि जो परिणामी और कालान्तर स्थायी होगा, वही अन्वयव्यतिरेक को धारण कर सकता है, कूटस्थ नित्य या क्षणिक पदार्थ नहीं)॥१२५॥ एकान्त से पदार्थों का नित्यत्व मान लेने पर कार्यकारणभाव नहीं हो सकता है। क्योंकि कार्यकारणभाव के अन्वयव्यतिरेक का वहाँ अभाव है। कार्य के होते समय किसी भी एक नित्यकारण का वहाँ विद्यमान रहना ही अन्वय नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो सभी नित्य पदार्थों के साथ उस कार्य का अन्वय होने का प्रसंग आयेगा। (ज्ञानकार्य के होने पर जैसे आत्मा नित्य कारण का पहले से विद्यमान रहना है, वैसे ही आकाश, परमाणु, काल, आदि का भी सद्भाव है) अतः प्रकरण में पड़े हुए नित्य आत्मा के सद्भाव होने पर जैसे ज्ञान का होना माना जाता है, वैसे ही उस आत्मा से अन्य माने गये आकाश आदि नित्य पदार्थों के होने पर भी ज्ञानकार्य का होना मानना पड़ेगा। आकाश, काल आदि से आत्मारूप कारण में सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। - सर्वथा नित्य माने गये पदार्थ का कार्य के साथ व्यतिरेक भी नहीं बन सकता है अर्थात् सर्वदा रहने वाले कारण का 'जब कारण नहीं है तब कार्य नहीं है।' ऐसा व्यतिरेक बनना सम्भव नहीं है। (यदि कहें कि) नित्य पदार्थों का कालव्यतिरेक घटित नहीं होता है किन्तु देशव्यतिरेक तो घटित हो सकता है। अर्थात् जिस देश में नित्य कारण नहीं हैं, उस देश में उसका कार्य भी उत्पन्न नहीं हो पाता है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि उस देशव्यतिरेक को व्यतिरेकत्व से नियम करना नहीं हो सकता है। अर्थात् आत्मा, आकाश आदि व्यापक द्रव्यों का देशव्यतिरेक बनता भी नहीं है। यदि असर्वगत (अव्यापक) द्रव्यों का देशव्यतिरेक बनाओगे तो प्रकरण में पड़े हुए कार्य देश में विवक्षा को प्राप्त हुए किसी अव्यापक नित्य द्रव्य का जैसे व्यतिरेक बनाया जा रहा है, वैसे ही विवक्षा में नहीं पड़े हुए दूसरे अव्यापक नित्य पदार्थ का भी देशव्यतिरेक सिद्ध हो जावेगा। भावार्थ-जैसे पार्थिव परमाणुओं के न रहने से घट नहीं बनता है वैसे यों भी कह सकते हैं कि अग्नि के परमाणु के न रहने से घट नहीं बना है। इसका नियम कौन करेगा कि घट का पृथ्वी-परमाणुओं के साथ देश-व्यतिरेक है, जलीय
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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