________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 364 ततोऽपि बिभ्यता नात्मनो भिन्नेन गुणेन संबंधोभिमंतव्यो न चासंबद्धस्तस्यैव गुणो व्यवस्थापयितुं शक्यो, यतः 'संबंधादिति हेतुः स्यादिति' सूक्तं नित्यैकांते नात्मा हि बंधमोक्षादिकार्यस्य कारणमित्यनवस्थानात् / क्षणक्षयेऽपि नैवास्ति कार्यकारणतांजसा / कस्यचित्क्वचिदत्यंताव्यापारादचलात्मवत् // 124 // क्षणिकाः सर्वे संस्काराः स्थिराणां कुतः क्रियेति निर्व्यापारतायां क्षणक्षयैकांते भूतिरेव क्रियाकारक व्यवहारभागिति ब्रुवाणः कथमचलात्मनि निर्व्यापारेऽपि सर्वथा भूतिरेव क्रियाकारकव्यवहारमनुसरतीति प्रतिक्षिपेत् / पर पहली गुणों से असम्बन्धित अवस्था का नाश हुआ, तथा नवीन गुणों के संबंधीपने इस दूसरे स्वरूप से आत्मा का उत्पाद हुआ और चैतन्य स्वरूप आत्मपने की अपेक्षा ध्रुवपना सिद्ध है। यही आत्मा में त्रिलक्षणपना व्यवस्थित हो रहा है। यदि आत्मा को कूटस्थ नित्य कहने वाले वादी आत्मा को अनित्य हो जाने के प्रसंगवश आत्मा के उस त्रिलक्षणपने से भी डरते हैं, तो उनको आत्मा से सर्वथा भिन्न माने गये गुण के साथ आत्मा का सम्बन्ध होना भी नहीं स्वीकार करना चाहिए। जो गुण आत्मा से सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ है, वह असंबद्ध गुण उस आत्मा का ही है, यह व्यवस्था भी तो नहीं की जा सकती है, जिससे कि समवाय संबंध हो जाने से वे गण विवक्षित आत्मा के नियत कर दिये जाते हैं। इस प्रकार उनका पूर्वोक्त हेतु मान लिया जाता। स्याद्वादियों ने पहले एक सौ सत्रहवीं कारिका में बहुत अच्छा कहा है कि कूटस्थ नित्य का एकान्त पक्ष लेने पर आत्मा बंध, मोक्ष, तत्त्व ज्ञान, आदि कार्यों का कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से अनवस्था हो जाती है। (त्रिलक्षण माने बिना नित्य आत्मा की अवस्थिति (सिद्धि) भी नहीं हो सकती है।) . कूटस्थ नित्य के समान एक क्षण में ही नष्ट होने वाले आत्मा में भी निर्दोष रूप से झट कार्यकारण भाव नहीं बनता है। क्योंकि एक ही क्षण में नष्ट होने वाले किसी भी पदार्थ का किसी भी एक कार्य में व्यापार करना अत्यन्त असम्भव है। अत: कूटस्थ निश्चल नित्य में जैसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती है, वैसे ही क्षणिक कारण भी किसी अर्थक्रिया को नहीं कर सकता हैं।।१२४ / / / रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध, संज्ञास्कन्ध और संस्कारस्कन्ध ये सबके सब संस्कार क्षणिक हैं। जो कूटस्थ स्थिर है, उनके अर्थक्रिया कैसे हो सकती है? अनेक समुदाय, साधारणता, मर कर उत्पन्न होना, प्रत्यभिज्ञान कराना, अन्वित करना आदि व्यापारों से रहित होने पर भी सर्वथा निरन्वय क्षणिक के एकान्तपक्ष में उत्पन्न होना ही क्रिया, कारक व्यवहार का कथन है। - इस प्रकार कहने वाला बौद्ध उन सांख्यों के माने गये “सर्व व्यापारों से रहित कूटस्थ आत्मा में भी सर्व प्रकारों से विद्यमान रहने रूप भूति ही क्रियाकारक व्यवहार का अनुसरण करती है" इस सांख्य सिद्धान्त का कैसे खण्डन कर सकेगा? भावार्थ-- सांख्य और बौद्ध दोनों ही मुख्य रूप से तो कार्यकारणभाव मानते नहीं हैं। केवल व्यवहार से असत् की उत्पत्ति और सत् के विद्यमान रहने रूप भूति को पकड़े हुए हैं। ऐसी दशा में कल्पित किये गये कार्य-कारण भाव से दोनों के यहाँ बंध, मोक्ष आदि व्यवस्था नहीं बन सकती है।