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________________ . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३६८ व्यतिरेकश्श स्यादित्यपि न मंतव्यमन्यत्र समानत्वात् / कारणत्वेनानभिमतेऽर्थे स्वदेशे सति सर्वस्य स्वदेशे भवनमन्वयो असति वाऽभवनं व्यतिरेक इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् / स्वयोग्यताविशेषात्कयोशिदेवार्थयोनिदेशयोरन्वयव्यतिरेकनियमात्कार्यकारणनियमपरिकल्पनायां भिन्नकालयोरपि स किं न भवेत्तत एव सर्वथा विशेषाभावात् / तदेतदप्यविचारितरम्यम्। तन्मते योग्यताप्रतिनियमस्य विचार्यमाणस्यायोगात् / योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्तिः, कार्यस्य च कारणजन्यत्वशक्तिस्तस्याः प्रतिनियमः, शालिबीजांकुरयोश्च भिन्नकालत्वाविशेषेऽपि शालिबीजस्यैव शाल्यंकुरजनने शक्तिर्न यवबीजस्य, कारणरूप से अस्वीकृत अर्थ के स्वकाल में होने पर चाहे किसी भी कार्य का अपने काल में हो जाना और उस तटस्थ कारण के नहीं होने पर कार्य का नहीं होना, ऐसा अन्वय और व्यतिरेक भी बन जायेगा। ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर अन्यत्र (दूसरे देश. व्यतिरेक में) भी यह अव्यवस्था समान रूप से है ही। अर्थात् कार्य-कारण भाव में भिन्नदेशवृत्ति का मानना तो आवश्यक है ही। तथा कारणत्व रूप से अस्वीकृत पदार्थ के स्वदेश में होने पर सब कार्य का स्वदेश में होना अन्वय है और स्वदेश में कारण के नहीं रहने पर कार्य नहीं होता है, यह व्यतिरेक है। ऐसा भी कहना शक्य नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर कोई कारण-कार्य रूप दोनों अर्थ भिन्न देश वाले होने पर भी स्वकीय विशेष योग्यता के बल से अन्वय-व्यतिरेक के नियम के अनुसार कार्य-कारण के नियम की कल्पना करने पर भिन्न देशकाल में स्थित पदार्थों के कार्य कारण भाव का नियम क्यों नहीं होगा? अवश्य ही होगा। क्योंकि भिन्न देश और भिन्न काल में कार्य-कारण भाव में सर्वथा विशेषता का अभाव है। अर्थात् जैसे भिन्न कालस्थित पदार्थों में कार्य-कारण भाव है, वैसे भिन्न देशस्थित पदार्थों में कार्य-कारण भाव हो सकता है। अब जैनाचार्य बौद्धों के कथन का खण्डन करते हैं। बौद्धों का कथन बिना विचारे ही रम्य प्रतीत होता है। (किन्तु विचार करने पर निस्सार होता है) क्योंकि बौद्धों के मत में ठीक-ठीक विचार करने पर विवक्षित कार्य-कारणों में नियमित योग्यता नहीं बन सकती है। (क्योंकि बौद्ध लोग अपने कहे गये तत्त्व के स्वलक्षणों को औपाधिक स्वभावों से रहित मानते हैं। कार्यकारण भाव को व्यवहार से ही मानते हैं, वास्तविक नहीं)। कार्यकारणभाव के प्रकरण में योग्यता का अर्थ कारण की कार्य को पैदा करने की शक्ति और कार्य की करण से जन्यपने की शक्ति ही है। उस योग्यता का प्रत्येक विवक्षित कार्य-कारण में नियम करना यही कहा जाता है कि धान के बीज और धान के अंकुरों में भिन्न-भिन्न समयवृत्तिपने की समानता के होने पर भी साठी चावल के बीज की ही धान के अंकुर को पैदा करने में शक्ति है, किन्तु जौ के बीज की धान के अंकुर पैदा करने में शक्ति नहीं है। तथा उस जौ के बीज की जौ के अंकुर पैदा करने में शक्ति है। धान का बीज जौ के अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता है। यही योग्यता कही जाती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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