________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 361 स्वभावै: संबंधात्। मुख्यस्वभावानामुपचरिरतैः स्वभावैस्तावद्भिरात्मनोऽसंबंधे नानाकार्यकरणं नानाप्रतिभासविषयत्वं चात्मनः किमुपचरितैरेव नानास्वभावैर्न स्यात्, येन मुख्यस्वभावकल्पनं सफलमनुमन्येमहि। नानास्वभावानामात्मनोनर्थान्तरत्वे तु स्वभावा एव नात्मा कशिदेको भिन्नेभ्यो नर्थान्तरस्यैकत्वायोगात्, आत्मैव वा न के चित्स्वभावाः स्युः, यतो नोपचरितस्वभावव्यवस्थात्मनो न भवेत् / कथंचिद्भेदाभेदपक्षेऽपि स्वभावानामात्मनोऽनवस्थानं तस्य निवारयितमशक्तेः। परमार्थतः कस्यचिदेकस्य नानास्वभावस्य मेचकज्ञानस्य ग्राह्याकारवेदनस्य वा सामान्यविशेषादेर्वा प्रमाणबलादव्यवस्थानात्तेन व्यभिचारासंभवादिति / तेप्यनेनैव प्रतिक्षिप्ता:, ' (नित्य आत्मवादी आगे कहते हैं कि) यदि जैन अनवस्था के निवारणार्थ उन अनेक मुख्य स्वभावों का उतनी संख्या वाले मुख्य स्वभावों से आत्मा के साथ संबंध होना न मानेंगे तो (उतनी संख्या वाले उपचरित स्वभावों से ही उन मुख्य स्वभावों का आत्मा में संबंध न होने पर) उन कल्पित अनेक स्वभावों के द्वारा ही आत्मा के मुख्य स्वभावों से होने वाले अनेक कार्यों को करना और अनेक ज्ञानों का विषय हो जाने रूप कार्य भी क्यों नहीं हो जावेंगे? जिससे कि जैनों के मुख्य स्वभावों की कल्पना करने को हम लोग सफल विचारपूर्वक समझें। अतः जैनों के द्वारा वास्तविक स्वभावों की कल्पना करना व्यर्थ है। ... आत्मा के अनेक स्वभावों को यदि (जैन) आत्मा से अभिन्न मानेंगे तब तो वे अनेक स्वभाव ही मानन चाहिए। एक आत्मा द्रव्य कोई भी नहीं माना जावे, क्या हानि है? क्योंकि भिन्न अनेक स्वभावों से जो अभिन्न है उसके एक होने का अयोग है। (ऐसा कौन विचारशील है जो भिन्न अनेक स्वभावों से एक आत्मा को अभिन्न कहता है) तथा दूसरी बात यह है कि स्वभावों को आत्मा से अभिन्न मानने पर आत्मा ही एक मान लिया जावे, दूसरे कोई अनेक स्वभाव न माने जावें, जिससे कि मुख्य स्वभावों के समान आत्मा के उपचरित स्वभाव भी नहीं हो सकते। भावार्थ- आत्मा में न मुख्य स्वभाव है और न उपचरित स्वभाव ही है। किन्तु आत्मा सम्पूर्ण स्वभावों से रहित होकर निःस्वभाव रूप कूटस्थ नित्य हैं। (कूटस्थ आत्मवादी कहते हैं कि) अनेक स्वभावों के कथञ्चित् भेद-अभेद पक्ष को यदि स्वीकार करेंगे तो अनेक स्वभावों का आत्मा में अवस्थान नहीं हो सकेगा। क्योंकि भेद पक्ष के अंश में अन्य स्वभावों की कल्पना करते-करते अनवस्थान हो जावेगा। उनका निवारण करना (आप जैनों के लिए) अशक्य होगा अर्थात् एक आत्मा के अनेक स्वभावों की व्यवस्था करना अनेकान्त मत में अशक्य है। क्योंकि अनेकान्त मत में संशय, विरोध, वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव ये आठ दोष आते हैं। तथा मुख्य रूप से किसी एक नाना स्वभाव वाले आत्मा के चित्रज्ञान, ग्राह्याकार वेदन ज्ञान वा सामान्य विशेष के प्रमाण के बल से अव्यवस्थान होने से उन मेचक आदि ज्ञान के द्वारा व्यभिचार संभव नहीं है। अर्थात् एक आत्मा को नाना स्वभावों से रहित सिद्ध करने के लिए दिये गये हमारे मुख्यरूप से एकत्व हेतु का उन अनेक स्वभाव रूप एक मेचकज्ञान (चित्रज्ञान) आदि से व्यभिचार होना कैसे भी सम्भव नहीं है।