________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 362 स्वयमिष्टानिष्टस्वभावाभ्यां सदसत्त्वस्वभावसिद्धेरप्रतिबंधात्। न च कस्यचिदुपचरिते सदसत्त्वे तत्त्वतोनुभयत्वस्य प्रसक्तेः, तच्चायुक्तं, सर्वथा व्याघातात् / कथंचिदनुभयत्वं तु वस्तुनो नोभयस्वभावतां विरुणद्धि; कथं वानुभयरूपतया तत्त्वं तदन्यरूपतया चातत्त्वमिति ब्रुवाणः कस्यचिदुभयरूपतां प्रतिक्षिपेत् / न सन्नाप्यसन्नोभयं नानुभयमन्यद्वा वस्तु; किं तर्हि? वस्त्वेव सकलोपाधिरहितत्वात्तथा वक्तु मशक्ते रवाच्यमेवेति चेत्, कथं वस्त्वित्युच्यते? सकलोपाधिरहितमवाच्यं वा? वस्त्वादिशब्दानामपि तत्राप्रवृत्तेः। सत्यामपि वचनागोचरतायामात्मादितत्त्वस्योपलभ्यताभ्युपेया। सा च स्वस्वरूपेणास्ति न पररूपेणेति - जैनाचार्य नित्यवाद का खण्डन करते हैं- इस प्रकार आत्मा को सर्वथा नित्य कहने वाले वे भी . हमारे पूर्वोक्त कथन के द्वारा ही तिरस्कृत (खण्डित) कर दिये जाते हैं। क्योंकि अपने लिए स्वयं इष्ट माने गये स्वभाव के द्वारा आत्मा को सत् स्वभाव और अपने लिए अनिष्ट स्वभाव के द्वारा उसी आत्मा के असत् स्वभाव की सिद्धि हो जाती है। क्योंकि एक आत्मा में सत् और असत् ऐसे दो स्वभावों की सिद्धि होने का कोई प्रतिबंध नहीं है। किसी वस्तु के केवल उपचार से माने गये सत्त्व और असत्त्व स्वभाव कुछ कार्यकारी नहीं होते हैं। यदि मुख्य रूप से सत्त्व और असत्त्व नहीं माने जावेंगे तो वस्तु में यथार्थ रूप से अनुभयपने का प्रसंग आता है और यह अयुक्त है। वस्तु में सत् और असत् का निषेध कर सर्वथा अनुभयपना आप सिद्ध नहीं कर सकते हैं। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। जिस समय सत् स्वभाव का निषेध करते हैं, उसी समय असत् स्वभाव का विधान हो जाता है, और जिस समय असत् स्वभाव का निषेध करते हैं, उसी क्षण में सत् स्वभाव के विधि की उपस्थिति हो जाती है। युगपत् दोनों स्वभावों का निषेध कभी नहीं हो सकता है। ___यदि किसी अपेक्षा से सत्, असत् का निषेध करने रूप अनुभय पक्ष लेंगे, तब तो वह कथञ्चित् अनुभयपना वस्तु के उभय स्वभावपने का विरोध नहीं करता है। जैसे सर्वथा सत् का सर्वथा असत् से विरोध है। किन्तु कथञ्चित् स्वरूप से सत् का और कथञ्चित् पररूप से असत् का विरोध नहीं है। ऐसे ही सर्वथा अनुभय का सर्वथा उभय से विरोध है, किन्तु कथञ्चित् अनुभय का कथञ्चित् उभय के साथ विरोध नहीं है। जो कूटस्थवादी सत्-असत् स्वभावों से रहित अनुभय रूप से आत्मतत्त्व को मानता है, वह भी अनुभय स्वभाव से तत्त्वपना और उससे अन्य उभय, सत्त्व, आदि स्वभावों से आत्मा को अतत्त्वपना अवश्य कहता है। अतः वह किसी भी वस्तु के उभयरूप का कैसे खण्डन कर सकता है? यहाँ कोई एकान्त रूप से वस्तु को अवक्तव्य कहने वाला बौद्ध कहता है कि वस्तु सत् रूप भी नहीं है और असत् रूप भी नहीं है तथा सत् असत् का उभयरूप भी नहीं है। एवं सत्-असत् दोनों का युगपत् निषेध रूप अनुभय स्वरूप भी नहीं है। अथवा अन्य धर्म या धर्मीरूप भी नहीं है। तब वस्तु कैसी है? इस पर बौद्धों का कहना है कि वह वस्तु वस्तु ही है। संपूर्ण उपाधि (विशेषण और स्वभावों) से रहित होने के कारण वस्तु को कहने के लिए कोई समर्थ नहीं है। वस्तु किसी शब्द के द्वारा नहीं कही जाती है। कोई भी शब्द वस्तु को स्पर्श नहीं करता है। अतः वस्तु अवाच्य ही है। जैनाचार्य कहते हैं कि वस्तु यदि सर्वथा ही अवाच्य है तो 'वस्तु' इस शब्द के द्वारा भी वह कैसे कही जा सकेगी? और वह सम्पूर्ण स्वभावों से रहित