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________________ , तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 360 नानाधर्माश्रयत्वं गौणमसदेव, मुख्यं स्थायित्वं तु सदिति तत्त्वतो जीवस्यैकरूपत्वमयुक्तं, सदसत्स्वभावत्वाभ्यामनेकरूपत्वसिद्धेः। यदि पुनरात्मनो मुख्यस्वभावेनेवोपचरितस्वभावेनापि सत्त्वमुररीक्रियते, तदा तस्याशेषपररूपेण सत्त्वप्रसक्ते रात्मत्वेनैव व्यवस्थानुपपत्तिः सत्तामात्रवत्सकलार्थस्वभावत्वात् / तस्योपचरितस्वभावेनेव मुख्यस्वभावेनाप्यसत्त्वे कथमवस्तुत्वं न स्यात्, सकलस्वभावशून्यत्वात् खरशृंगवत् / ये त्वाहुः उपचरिता एवात्माः स्वभावभेदाः न पुनर्वास्तवास्तेषां ततो भेदे तत्स्वभावत्वानुपपत्तेः / अर्थांतरस्वभावत्वेन संबंधात्तत्स्वभावत्वेप्येकेन स्वभावेन तेन तस्य तैः संबंधे सर्वेषामेकरूपतापत्तिः, नानास्वभावैःसंबंधेऽनवस्थानं तेषामप्यन्यैः आत्मा में नाना धर्मों का आश्रयपना गौण रूप से आरोपित धर्म होने से असत् है, तथा आत्मत्व आदि. मुख्य धर्म सत् स्वरूप है। अत: वास्तव में विचारा जावे तो जीव अपने स्थायी धर्मों से एक सत् रूप ही है। असत् अंश उसमें सर्वथा नहीं है, ऐसा (नैयायिक का) कहना अयुक्त है। क्योंकि सत् और असत् दोनों स्वभाव होने से जीव के अनेक धर्म सिद्ध है। यदि जीव को मुख्य और गौण सर्व प्रकार से सद्रूप ही माना जावेगा तो मख्य स्वभावों से जैसे जीव के सद्रपपना है. वैसे ही गौण कल्पित स्वभाव रूप से सतरूपपना स्वीकार करना पडेगा। और ऐसा होने पर उस जीव को सम्पूर्ण (जड़पना, रसवानपना, गंधवानपना आदि) दूसरों के स्वभावों करके भी सत्रूपपने का प्रसंग आवेगा। (अतः वह जीव उन जड़ पृथ्वी, आकाश, स्वरूप बन जावेगा।) तथा जीव की आत्मपने स्वरूप से व्यवस्था होना भी असत्य हो जायेगी। (अर्थात् जड़ और चेतन पदार्थों का सांकर्य हो जावेगा।) केवल (शुद्ध) सत्ता के समान सम्पूर्ण पदार्थ सभी पदार्थों के स्वभाव वाले हो जावेंगे। (अपने स्वभावों से पदार्थ सद्रूप है और अन्य के स्वभावों से वस्तु असत् रूप है। ऐसा मानना पड़ेगा।) यदि उपचरित स्वभाव करके वस्तु जैसे असत् रूप है, वैसे ही मुख्य अपने स्वभावों करके भी उसको असत् रूप मानोगे तो उसको अवस्तुपना क्यों नहीं होगा? (क्योंकि परकीय स्वभावों से शून्य तो वस्तु थी ही अब आपने स्वकीय मुख्य स्वभावों से भी रहित मान लिया है) ऐसी दशा में सम्पूर्ण स्वभावों से शून्य हो जाने के कारण गधे के सींग समान वह अवस्तु, असत्रूप, शून्य क्यों नहीं हो जावेगी? अवश्य हो जावेगी। ____ यहाँ जो नित्य आत्मवादी ऐसा कहते हैं कि आत्मा के वे भिन्न-भिन्न अनेक स्वभावभेद कल्पना से आरोपित हैं, वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि उन अनेक स्वभावों को उस एक आत्मा से भिन्न मानने पर उनमें उस आत्मा का स्वभावपना नहीं सिद्ध होता है। (जैसे कि ज्ञान से सर्वथा भिन्न माने गये गंध, रूप आदि गुण ज्ञान के स्वभाव नहीं होते हैं) यदि (आप जैन) आत्मा के उन भिन्न स्वभावों का अन्य भिन्न स्वभाव के द्वारा संबंध हो जाने से आत्मा के उनको स्वभावपना मानोगे तो, एक उस स्वभाव से आत्मा का उन स्वभावों के साथ संबंध माना जावेगा, तब तो उन सर्व ही स्वभावों को एक हो जाने का प्रसंग होगा। भिन्न-भिन्न नाना स्वभावों से यदि उन भिन्न स्वभावों के साथ आत्मा का संबंध माना जावेगा तो अनवस्था दोष होगा। क्योंकि उन स्वभावों के साथ संबंध करने के लिए भी पुनः तीसरे चौथे पाँचवें आदि अनेक स्वभावों करके संबंध मानने पड़ेंगे और उन आगे-आगे वाले स्वभावों का भी अन्य-अन्य चौथे, पाँचवें आदि स्वभावों करके सम्बन्ध होने से कहीं अवस्थान (रुकना) नहीं हो पाता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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