________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३५९ कदाचिन्नश्वरस्वभावाधिकरणं कदाचिदुत्पित्सुधर्माधिकरणमात्मा नित्यैकांतरूप इति ब्रुवन्न स्वस्थः, कादाचित्कानेकधर्माश्रयत्वस्यानित्यत्वात् / नानाधर्माश्रयत्वस्य गौणत्वादात्मनः सदा। स्थास्नुतेति न साधीयः सत्यासत्यात्मताभिदः // 122 // सत्यासत्यस्वभावत्वाभ्यामात्मनो भेदः संभवतीत्ययुक्तं, विरुद्धधर्माध्यासलक्षणत्वाद्भेदस्यान्यथात्मानात्मनोरपि भेदाभांवप्रसंगात् / असत्यात्मकतासत्त्वे सत्त्वे सत्यात्मतात्मनः / सिद्धं सदसदात्मत्वमन्यथा वस्तुताक्षतिः॥१२३॥ कदाचित् आत्मा नाश होने वाले गुण-स्वभावों का अधिकरण है और कभी उत्पन्न होने वाले धर्मों का अधिकरण है फिर भी आत्मा को एकान्त रूप से कूटस्थ नित्य कहने वाला वैशेषिक, सांख्य या नैयायिक स्वस्थ नहीं है अर्थात् उसका कथन सुसंगत नहीं है। क्योंकि कदाचित् अनेक धर्मों का आश्रय होने से आत्मा अनित्य है। (नित्य आत्मवादी के अनुसार) अनेक धर्मों के आश्रयत्व की गौणता होने से सर्वदा आत्मा स्थिति स्वभाव वाला है। ग्रन्थकार कहते हैं इस प्रकार कहना अच्छा नहीं है। म्योंकि सर्वदा स्थित रहने वाले सत्य और असत्य स्वरूप के द्वारा आत्मा का भेद सिद्ध होता है। अत: आत्मा अनित्य है॥१२२ // (नित्यात्मवादी) सत्य (सत्त्व) स्वभाव और असत्य (असत्त्व) स्वभाव से आत्मा का भेद है (यानी वे सत्य और असत्य स्वभाव भी आत्मा से भिन्न हैं।) अर्थात् उन स्वभावों में ही भेद-सम्भवता * है। आत्मा तो कूटस्थ नित्य एक है। ऐसा कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकि भेद का लक्षण विरुद्ध धर्मों से आक्रान्त हो जाना ही है। ऐसा न मानकर यदि अन्यथा मानोगे (यानी अधिकरण से अधिकरणपन स्वभाव को पृथक् मान लिया जावेगा) तब तो आत्मा और अनात्मा के भेद न होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् आत्मा में ज्ञान, सुख आदि की अधिकरणता है और जड़ पृथ्वी आदि में रूप रस आदि की अधिकरणता है। तभी तो जड़ और चेतन में भेद माना जाता है। ऐसा माने बिना जड़, चेतन का भेद भी उठ जावेगा। अतः आत्मा भी भिन्न स्वभाव वाला होकर अनित्य है। - आत्मा को गौण रूप से आरोपित किये गये असत् स्वरूप धर्मों की अपेक्षा से असत् और सर्वदा विद्यमान रहने वाले सत्य स्वरूप स्वभावों की अपेक्षा से सर्वदा सत् मानोगे तब तो आत्मा को सत् और असत् स्वरूपपना सिद्ध हो जाता है। अन्यथा आत्मा को वस्तुपने की हो क्षति हो जाती है भावार्थ- सत् असत् धर्मात्मक वस्तु होती है। स्वचतुष्टयकी अपेक्षा पदार्थ सत् है और पर चतुष्टयकी अपेक्षा असत् है। अन्यथा खरविषाण के समान शून्यपने या सार्य हो जाने का प्रसंग आता है॥१२३॥