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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक -327 न.हि क्षायिकदर्शनं केवलज्ञानावरणादिभिः सहितं केवलज्ञानस्य प्रभवं प्रयोजयति, तैस्तत्प्रभावत्वशक्तेस्तस्य प्रतिबंधात् येन तदनंतरं तस्योत्पादः स्यात् / तैर्विमुक्तं तु दर्शनं केवलस्य प्रभावकमेव तथेष्टत्वात, कारणस्याप्रतिबंधस्य स्वकार्यजनकत्वप्रतीतेः। सद्बोधपूर्वकत्वेऽपि चारित्रस्य समुद्भवः। प्रागेव केवलान्न स्यादित्येतच्च न युक्तिमत् // 82 // समुच्छिन्नक्रियस्यातो ध्यानस्याविनिवर्तिनः / साक्षात्संसारविच्छेदसमर्थस्य प्रसूतितः॥८३॥ यथैवापूर्णचारित्रमपूर्णज्ञानहेतुकम्। तथा तत्किन्न संपूर्ण पूर्णज्ञाननिबंधनम् // 84 // तन्न ज्ञानपूर्वकतां चारित्रं व्यभिचरति / प्रागेव क्षायिकं पूर्ण क्षायिकत्वेन केवलात् / नत्वघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतः // 85 // केवलज्ञानावरणादि कर्म सहित क्षायिक सम्यग्दर्शन तो केवलज्ञान की उत्पत्ति का प्रयोजक (कारण) नहीं है क्योंकि केवलज्ञानावरणादि कर्मों ने क्षायिक सम्यग्दर्शन की केवलज्ञान उत्पादकत्व शक्ति को रोक दिया हैजिससे कि क्षायिक सम्यग्दर्शन के अव्यवहित काल में उस केवलज्ञान की उत्पत्ति हो सके। अर्थात् केवलज्ञानावरणादि कर्मों के द्वारा क्षायिक सम्यग्दर्शन की केवलज्ञान-अपादक शक्ति का व्याघात कर दिया गया है इसलिए उसके अनन्तर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। तथा ज्ञानावरणादि कर्मों से रहित क्षायिक सम्यग्दर्शन केवलज्ञान का उत्पादक है, ऐसा इष्ट ही है। अत: अप्रतिबन्धक कारण के ही स्वकार्यजनकत्व की प्रतीति है (अर्थात् प्रतिबन्धक कारणों का अभाव ही स्वकार्य का उत्पादक है।) . .शंका - यदि केवलज्ञान पूर्वक चारित्र की उत्पत्ति होती है तो केवलज्ञान के पूर्व क्षायिक चारित्र की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए। उत्तर - इस प्रकार कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि (यद्यपि सामान्य चारित्र की उत्पत्ति सामान्य ज्ञान के कारण हो गई तथापि) संसार के साक्षात् विच्छेदक समुच्छिन्नक्रियाविनिवर्ति (व्युपरत क्रियानिवृत्ति) ध्यान (चारित्र) की उत्पत्ति केवलज्ञान के कारण ही होती है। अतः अपूर्णज्ञानहेतुक अपूर्ण चारित्र है, उसी प्रकार पूर्णज्ञान हेतुक पूर्ण चारित्र क्यों नहीं होगा। अर्थात् जिस प्रकार अपूर्ण ज्ञान अपूर्ण चारित्र में कारण है, उसी प्रकार पूर्ण ज्ञान पूर्ण चारित्र का कारण है।।८२-८३-८४ / / इसलिए चारित्र ज्ञान पूर्वक होता है इसमें कोई दोष नहीं हैचारित्र कभी ज्ञानपूर्वकत्व का अतिक्रम नहीं करता। क्षायिक चारित्र की विशिष्टता यद्यपि केवलज्ञान होने के पूर्व ही चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न क्षायिकत्व की अपेक्षा क्षायिक चारित्र पूर्ण है, परन्तु अघातिया कर्मों के नाश करने की शक्ति की अपेक्षा वह चारित्र (14 वें गुणस्थान के पूर्व) परिपूर्ण नहीं है।८५॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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