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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३२६ - क्षायिकस्य युक्ती, येनैवं त्रिलक्षणता स्यात् / इति चेत्, तर्हि पूर्वोत्तरसमययोस्तदुपाधिभूतयो शोत्पादौ कथं तस्य स्यातां यतोऽसौ स्वयं स्थितोऽपि सर्वतदपेक्षया त्रिलक्षणः स्यादिति कौटस्थ्यमायातम् / ____ तथा च सिद्धान्तविरोधः परमतप्रवेशात् / यदि पुनस्तस्य पूर्वसमयेन विशिष्टतोत्तरसमयेन च तत्स्वभावभूतता ततस्तद्विनाशोत्पादौ तस्येति मतं, तदा हेत्वंतरेणोन्मुक्तता युक्तता च तद्भावेन तदभावेन च विशिष्टता तस्य स्वभावभूततैवेति तन्नाशोत्पादौ कथं न तस्य स्यातां, यतो नैवं त्रिलक्षणोऽसौ भवेत् / ततो युक्तं क्षायिकानामपि कथंचिदुपादानोपादेयत्वम्। कारणं यदि सद्वृष्टिः सद्बोधस्य तदा न किम् / तदनन्तरमुत्पादः केवलस्येति केचन // 8 // तदसत्तत्प्रतिद्वंद्विकर्माभावे तथेष्टितः / कारणं हि स्वकार्यस्याप्रतिबंधिप्रभावकम् // 81 // उत्तर - यदि आप क्षायिक भाव में त्रिलक्षणता नहीं मानते हो तो "पूर्व काल रहने रूप विशेषण का व्यय और उत्तर काल में रहने रूप विशेषण का उत्पाद क्षायिक सम्यग्दर्शन के कैसे होगा" जिससे स्वयं स्थित रहते हुए भी सर्व इन (पूर्व अपर उत्तर) समयों में वर्तनारूप उपाधियों की अपेक्षा तीन लक्षण वाला आपके कथनानुसार सिद्ध होता है। यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त नहीं मानेंगे तो क्षायिक सम्यक्त्व के कौटस्थ्य नित्यत्व का प्रसंग आयेगा। तथा क्षायिक भावों को कूटस्थ नित्य मानने पर जैन सिद्धान्त का विरोध और सांख्य मत का प्रवेश होगा। (कौटस्थ्य नित्य प्रमाणसिद्ध भी नहीं है।) ' यदि कहो कि "क्षायिक भाव के पूर्व समय की रहितता तथा विशिष्ट उत्तर समय की सहितता ये दोनों क्षायिक भाव की स्वभावभूतता (तदात्मकता) है। अत: उन स्वभावभूत धर्मों का उत्पाद और विनाश क्षायिक भाव का उत्पाद और विनाश कहलाता है, तो क्षायिक दर्शन के हेत्वन्तर (विशिष्ट ज्ञान चारित्र की) रहितता उनकी सहितता ये दोनों धर्म स्वभाव रूप भाव कर सहितता और उसके स्वभाव रूप अभाव करके विशिष्टता रूप है अतः वे विशिष्टता रूप धर्म उस क्षायिक भाव की आत्मभूत स्वभाव-भूतता ही है। इसलिए आत्मभूत स्वभावों के नाश और उत्पाद उस क्षायिक भाव के क्यों नहीं कहे जायेंगे? तथा इन क्षायिक भावों में जिससे यह उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त विलक्षणता नहीं होगी। अतः क्षायिक भावों में भी कथंचित् उपादान उपादेयत्व मानना युक्तिसिद्ध है। घातिया कर्मों के अभाव में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है ___ कोई शंकाकार कहता है कि- यदि सम्यग्दर्शन सद्बोध (केवलज्ञान) का कारण है तो क्षायिक सम्यग्दर्शन के उत्तर क्षण में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है? उत्तर - यह कथन प्रशंसनीय नहीं है- क्योंकि प्रतिद्वन्द्वी (प्रतिबन्धक) कर्मों के अभाव में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति इष्ट है। अर्थात् केवलज्ञान के प्रतिद्वन्द्वी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों का अभाव हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न होना इष्ट ही है। क्योंकि अप्रतिबन्धी प्रभावक कारण ही अपने कार्य के उत्पादक होते हैं।८०-८१॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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