________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 325 तथा हेत्वन्तरोन्मुक्तयुक्तरूपेण विच्युतौ / जातौ च क्षायिकत्वेन स्थितौ किमु न तादृशः // 79 // क्षायिकदर्शनं तावन्मुक्तेर्हेतुस्ततो हेत्वन्तरं विशिष्टं ज्ञानं चारित्रं च, तदुन्मुक्तरूपेण तस्य नाशे तद्युक्तरूपेण जन्मनि क्षायिकत्वेन स्थाने विलक्षणत्वं भवत्येव; तथा क्षायिकदर्शनज्ञानद्वयस्य मुक्तिहेतोर्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयस्य वा हेत्वंतरं चारित्रमघातित्रयनिर्जराकारी क्रियाविशेषः कालादिविशेषन, तेनोन्मुक्तया प्राक्तन्या युक्तरूपया चोत्तरया नाशे जन्मनि च क्षायिकत्वेन स्थाने वा तस्य त्रिलक्षणत्वमनेन व्याख्यातमिति क्षायिको भावस्त्रिलक्षण: सिद्धः। ननु तस्य हेत्वंतरेणोन्मुक्तताहेत्वंतरस्य प्रागभाव एव, तेन युक्तता तदुत्पाद एव, न चान्यस्याभावोत्पादौ स्वभाव) से क्षायिक सम्यग्दर्शन का नाश अन्य कारणों के सहितपने (सहचारी क्षायिक सम्यग्दर्शन) से उत्पत्ति और क्षायिकत्व सामान्य की अपेक्षा स्थिति (ध्रौव्यता) होने से क्षायिक भावों में भी इस प्रकार त्रिलक्षणता क्यों नहीं मानते? अर्थात् जैसे व्यवहार काल रूप विशेषणों का उत्पाद विनाश माना जाता है- उसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन में विशिष्ट ज्ञान के असहचारीपने का नाश, विशिष्ट ज्ञान के सहचारीपने का उत्पाद और अपने स्वरूप लाभ का कारण क्षायिकपने से स्थित रहना, ये तीन स्वभाव क्यों नहीं सिद्ध होंगे (अवश्य ही होंगे) // 78-79 / / . उन तीनों में प्रथम क्षायिक सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण है। उस सम्यग्दर्शन से अतिरिक्त मुक्ति के दूसरे कारण विशिष्ट (केवल) ज्ञान और विशिष्ट (यथाख्यात) चारित्र हैं। अतः क्षायिक सम्यग्दर्शन का विशिष्ट ज्ञान चारित्र रहितपने से तो नाश होता है। विशिष्ट ज्ञान चारत्र सहितत्व से क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है तथा क्षायिक सम्यक्त्व रूप से वह क्षायिक सम्यक्त्व स्थित रहता है इसलिये क्षायिक सम्यक्त्व के भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप त्रिलक्षणता सिद्ध होती ही है। तथा मुक्तिपद के कारणभूत क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक ज्ञान का नाश तथा दर्शन ज्ञान चारित्र त्रयात्मक मुक्ति के कारणों का उत्पाद तथा मोहनीय कर्म, ज्ञानावरणीय . कर्म के क्षय से उत्पन्न क्षायिक सम्यग्दर्शन क्षायिक ज्ञान से स्थित है। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक ज्ञान एवं क्षायिक चारित्र त्रय का विनाश और तीन अघातिया कर्मों की (वेदनीय गोत्र नाम) निर्जरा करने वाला हेत्वन्तर चारित्र (व्युपरतिक्रिया-निवृत्ति ध्यान) का उत्पाद होता है वा क्रियाविशेष (अपरिस्पन्दरूप क्रियाविशेष) काल आदि शब्द से कर्मभूमि, आर्यक्षेत्र, आयुकर्म का नाश आदि भी मुक्ति के सहकारी कारण हैं। अत: चौदहवें गुणस्थान के अन्त में चतुर्थ शुक्ल ध्यान कालविशेष आदि का नाश उत्तरवर्ती चारित्र आदि का उत्पाद तथा क्षायिक ज्ञान दर्शन चारित्र से स्थिति होने से क्षायिक भाव के भी त्रिलक्षणत्व सिद्ध ही है। __ शंका - उस क्षायिक सम्यग्दर्शन का अन्य हेतुओं (ज्ञानचारित्र) से रहितत्व तो उन अन्य हेतुओं (विशिष्ट ज्ञान चारित्र) का प्रागभाव ही है। तथा विशिष्ट ज्ञान चारित्र सहितत्व ही उत्पाद है। अन्य का उत्पाद व्यय नहीं है। अतः क्षायिक सम्यक्त्व का विनाश और उत्पाद कहना ठीक नहीं है, जिससे क्षायिक भावों में त्रिलक्षणता सिद्ध हो सके? 1. वर्तमान पर्याय में पूर्व पर्याय का अभाव प्रागभाव है।