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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 324 क्षायिकदर्शनं ज्ञानोत्पत्तौ न नश्यत्येवानंतत्वात् क्षायिकज्ञानवत्, अन्यथा तदपर्यन्तत्वस्यागमोक्तस्य हानिप्रसंगात् / ततो न दर्शनज्ञानयोनिचारित्रयो कथंचिदुपादानोपादेयता युक्ता, इति ब्रुवाणो न सिद्धान्तवेदी। सिद्धान्ते क्षायिकत्वेन तदपर्यन्ततोक्तितः। सर्वथा तदविध्वंसे कौटस्थ्यस्य प्रसङ्गतः // 76 // तथोत्पादग्यध्रौव्ययुक्तं सदिति हीयते। प्रतिक्षणमतो भावः क्षायिकोऽपि त्रिलक्षणः // 77 // ननु च पूर्वसमयोपाधितया क्षायिकस्य भावस्य विनाशादुत्तरसमयोपाधितयोत्पादात्स्वस्वभावेन सदा स्थानाविलक्षणत्वोपपत्तेः, न सिद्धान्तमनवबुध्य क्षायिकदर्शनस्य ज्ञानकाले स्थिति ब्रूते येन तथा वचोऽसिद्धान्तवेदिनः स्यादिति चेत् पूर्वोत्तरक्षणोपाधिस्वभावक्षयजन्मनोः। क्षायिकत्वेनावस्थाने स यथैव त्रिलक्षणः॥७८॥ सत् द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य सहित है क्षायिक ज्ञान के समान अनन्त (अनन्त काल तक रहने वाला) होने से विशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति के काल में क्षायिक दर्शन नष्ट नहीं होता। यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन का विनाश मानेंगे तो आगम में कथित सम्यग्दर्शन के अनन्तता की हानि का प्रसंग आयेगा। अत: ‘दर्शन और ज्ञान के तथा ज्ञान और चारित्र के कथंचित् उपादान उपादेयता मानना उचित नहीं है, इस प्रकार शंका करने वाला जैनसिद्धान्त का ज्ञाता नहीं है। जैनसिद्धान्त में क्षायिक सम्यक्त्व को दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से अनन्त और अविनाशी कहा है। किन्तु सर्वथा क्षायिक सम्यक्त्व का नाश न होने से तो उसके कूटस्थ नित्यपने का प्रसंग आयेगा। तथा सर्वथा अपरिणामी कूटस्थ नित्य क्षायिक सम्यक्त्व को स्वीकार कर लेने पर उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' / सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित होता है; इस सिद्धान्त की हानि हो जायेगी। अतः कर्मों के क्षय से होने वाले क्षायिक भाव भी प्रत्येक क्षण में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षण वाले हैं। अर्थात् सत्ता स्वरूप होने से क्षायिक दर्शन ज्ञान आदि भाव भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित हैं॥७६-७७॥ शंका - क्षायिक भाव के पूर्व समय की उपाधि (पूर्व समय रहने रूप विशेषण) से विनाश उत्तर समय की उपाधि से उत्पाद और स्वभाव से सदा अवस्थित रहने से त्रिलक्षण की उत्पत्ति हो जाती है। अत: जैन सिद्धान्त के तत्त्व को न समझ कर मैं क्षायिक सम्यग्दर्शन के ज्ञान के काल में अक्षुण्ण स्थिति को नहीं कह रहा हूँ जिससे कि पूर्वोक्त शंका वचन मुझ सिद्धान्त को नहीं जानने वाले के होते। अतः त्रिलक्षणता की सिद्धि होने पर भी क्षायिक सम्यग्दर्शन का नाश नहीं हो सकता। परन्तु ऐसी स्थिति में आपका माना गया दर्शन ज्ञान का या ज्ञान चारित्र का उपादान-उपादेयपना कैसे सिद्ध होगा? उत्तर - पूर्व समय में रहने स्वभाव रूप विशेषण का नाश, उत्तर क्षण में रह जाने स्वभाव रूंप विशेषण का उत्पाद और प्रतिपक्षी कर्मों के क्षय से (क्षायिकत्व स्वभाव से) क्षायिक भावों का सदा स्थित रहने रूप ध्रौव्य इस प्रकार तीन लक्षणत्व जैसे क्षायिक भावों में मानते हैं; उसी प्रकार अन्य कारणों से रहितत्व स्वभाव (सहचारी
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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