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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३२८ ___केवलात्तत्प्रागेव क्षायिकं यथाख्यातचारित्रं सम्पूर्ण ज्ञानकारणकमिति न शंकनीयं, तस्य मुक्त्युत्पादने सहकारिविशेषापेक्षितया पूर्णत्वानुपपत्तेः। विवक्षितस्वकार्यकरणेत्यक्षणप्राप्तत्वं हि संपूर्ण, तच्च न केवलात्प्रागस्ति चारित्रस्य, ततोऽप्यूर्ध्वमघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतया संपूर्णस्य तस्योदयात् / न च 'यथाख्यातं पूर्ण चारित्रमिति प्रवचनस्यैवं बाधास्ति' तस्य क्षायिकत्वेन तत्र पूर्णत्वाभिधानात् / न हि सकलमोहक्षयादुद्भवच्चारित्रमंशतोऽपि मलवदिति शश्वदमलवदात्यंतिकं तदभिष्ट्रयते। कथं पुनस्तदसंपूर्णादेव ज्ञानात्क्षायोपशमिकादुत्पद्यमानं तथापि संपूर्णमिति चेत् न, सकलश्रुताशेषतत्त्वार्थपरिच्छेदिनस्तस्योत्पत्तेः। पूर्णं तत एव तदस्त्विति चेन्न, विशिष्टस्य रूपस्य तदनंतरमभावात् / किं तद्विशिष्टं रूपं चारित्रस्येति चेत्, नामाद्यघातिकर्मत्रयनिर्जरणसमर्थ समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिध्यानमित्युक्तप्रायं। केवलज्ञान के उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही यथाख्यात नामक चारित्र परिपूर्ण और क्षायिक हो जाता.. है और वही चारित्र ज्ञान (केवलज्ञान) का कारण है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि (क्षायिकचारित्र की अपेक्षा परिपूर्णता होने पर भी) उस क्षायिकचारित्र के मुक्ति रूप कार्य को उत्पादित करने में सहकारी कारणों की अपेक्षा होने से अभी परिपूर्णता की अनुपपत्ति है। (परिपूर्णता नहीं है)। क्योंकि विवक्षित स्वकार्य करने में कारण का अन्त के क्षण में प्राप्त होना ही सम्पूर्णता है। वह चारित्र की सम्पूर्णता (उत्तरक्षण में कार्य करने का सामर्थ्य) केवलज्ञान के उत्पन्न होने के पहले नहीं है। क्योंकि क्षायिक चारित्र की पूर्णता के होने पर भी अघाति कर्मों का विध्वंस करने की सामर्थ्य रूपता से सम्पूर्णता की उत्पत्ति उस चारित्र के केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद होती है। केवलज्ञान के पूर्व चारित्र की पूर्णता न मानने पर 'यथाख्यात चारित्र पूर्ण है' इस प्रकार आगम वाक्य की बाधा भी नहीं आ सकती, क्योंकि उस आगम में उस यथाख्यात चारित्र के चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से परिपूर्णता स्वीकार की गयी है। तथा सकल मोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न क्षायिक चारित्र एक अंश से भी मलयुक्त नहीं है, इसलिए वह क्षायिक चारित्र सर्वदा ही अत्यधिक अनन्त काल तक निर्मल है, ऐसी उसकी स्तुति की गई है। शंका - फिर भी असम्पूर्ण और क्षायोपशमिक ज्ञान से उत्पन्न यथाख्यात चारित्र सम्पूर्ण कैसे हो सकता उत्तर - ऐसा कहना ठीक नहीं है- क्योंकि सम्पूर्ण तत्त्वार्थों को परोक्ष रूप से जानने वाले पूर्ण श्रुतज्ञानी को ही यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति होती है। (श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में सम्पूर्ण तत्त्वों को जानने में परोक्ष और प्रत्यक्ष का ही अन्तर है)। शंका - यदि पूर्ण श्रुतज्ञान से उत्पन्न यथाख्यात चारित्र परिपूर्ण है तो श्रुतज्ञान के बल से वह परिपूर्ण कहा जायेगा। (केवलज्ञान के बाद परिपूर्ण होगा, ऐसा क्यों कहा जाता है ?) ___उत्तर - ऐसी शंका करना उचित नहीं है क्योंकि (यद्यपि अपने अंशों में तो वह चारित्र परिपूर्ण है तथापि) उस चारित्र के कतिपय विशिष्ट स्वभाव उस पूर्ण श्रुतज्ञान के अनन्तर भी उत्पन्न नहीं होते हैं। शंका - उस क्षायिक चारित्र का विशिष्ट स्वभ क्या है? 1. सुदकेवलं च णाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाणं च परोक्खं, पच्छक्खं केवलं णाणं / गो.सा.
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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