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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३१८ दर्शनमोहविगमज्ञानावरणध्वंसवृत्तमोहसंक्षयात्मका हेतवो दर्शनादीनां भेदमंतरेण न हि परस्परं भिन्ना घटते, येन तद्भेदात्तेषां कथंचिद्भेदो न सिद्ध्येत् / चक्षुराद्यनेककारणेनैकेन रूपज्ञानेन व्यभिचारी कारणभेदो भिदि साध्यायामिति चेन्न, तस्यानेकस्वरूपत्वसिद्धेः। कथमन्यथा भिनयवादिबीजकारणा यवांकुरादयः सिद्ध्येयुः परस्परभिन्नाः। न चैककारणनिष्पाद्ये कार्यकस्वरूपे कारणांतरं प्रवर्तमानं सफलं / सहकारित्वात्सफलमिति चेत्, किं पुनरिदं सहकारिकारणमनुपकारकमपेक्षणीयं? तदुपादानस्योपकारकं तदिति चेन्न, तत्कारणत्वानुषंगात् / साक्षात्कार्ये व्याप्रियमाणमुपादानेन सह तत्करणशीलं हि सहकारि, न पुनः कारणमुपकुर्वाणं। तस्य कारणकारणत्वेनानुकूलकारणत्वादिति चेत्, तर्हि सहकारिसाध्यरूपतोपादानसाध्यरूपतायाः परा प्रसिद्धा कार्यस्येति न किंचिदनेककारणमेकस्वभावं, येन हेतोय॑भिचारित्वाद्दर्शनादीनां स्वभावभेदो न सिद्ध्येत्। दर्शनमोह के नाश से सम्यग्दर्शन होता है, ज्ञानावरण के ध्वंस से सम्यग्ज्ञान होता है और चारित्र-मोह का विनाश होने से सम्यक्चारित्र होता है अतः सम्यग्दर्शनादि के परस्पर भेद बिना दर्शनमोहादिक नाशहेतु घटित नहीं हो सकते। जिस दर्शनादि में कथंचित् भेद सिद्ध न हो अर्थात् हेतु (कारण) की अपेक्षा सम्यग्दर्शनादि (कार्य) में कथंचित् भेद सिद्ध होता ही है। प्रश्न - ज्ञान-दर्शनादि के परस्पर भेद के साध्य में चक्षु आदि अनेक कारणों से होने वाले एक रूपज्ञान के द्वारा भेद हेतु व्यभिचारी (अनैकान्तिक हेत्वाभास) है। - उत्तर - रूपज्ञान में ही अनेकत्व सिद्ध होने से भिन्न कार्य से दर्शनादि के भिन्नता सिद्ध करने में हेतु व्यभिचारी नहीं है। भिन्न कारणों से होने वाले कार्यों में भेद स्वीकार नहीं करने पर भिन्न-भिन्न जौ, गेहूँ आदि कारणों से उत्पन्न यव, अंकुर आदि में परस्पर भेद कैसे सिद्ध होगा? तथा एक कारण से निष्पन्न एक कार्य में अनेक कारणों का प्रवर्तन होना निष्फल है। यदि कहो कि सहकारी कारण की अपेक्षा एक कार्य में अनेक कारणों को स्वीकार करना निष्फल नहीं है तो उन अनुपकारी सहकारी कारणों की अपेक्षा करने से क्या प्रयोजन है ? यदि उन सहकारी कारणों को उपादान के उपकारी मानते हैं तो सहकारी कारणों में भी करणत्व का प्रसंग आता है। तथा उपादान के साथ साक्षात् कार्य में व्यापार करने का स्वभाव वाला ही सहकारी कारण होता है, केवल उपादान का उपकार करने वाला सहकारी कारण नहीं होता। यदि कहो कि कारण के कारणत्व से अनुकूल होने से उपादान का कारण है, तो कार्य के उपादान साध्यरूपता से सहकारी साध्यरूपता भिन्न सिद्ध होती है, अतः अनेक कारणों से होने वाले कार्य के एक स्वभाव किंचित् भी सिद्ध नहीं हो सकता, जिससे हमारे हेतु के व्यभिचारित्व होने से सम्यग्दर्शनादि के स्वभावभेद सिद्ध नहीं अर्थात् कारण-भेद से कार्य के स्वभाव-भेद सिद्ध होता ही है और सम्यग्दर्शनादि में कारणभेद होने से स्वभावभेद है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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