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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 317 न हि नीलतोत्पलत्वादीनामेकद्रव्यवृत्तितया सामानाधिकरण्यं कथंचिद्भेदमंतरेणोपपद्यते, येनैकजीवद्रव्यवृत्तित्वेन दर्शनादीनां सामानाधिकरण्यं तथाभेदसाधनाद्विरुद्धं न स्यात् / मिथ्याश्रद्धानविज्ञानचर्याविच्छित्तिलक्षणम्। ' कार्य भिन्नं दृगादीनां नैकांताभिदि संभवि // 64 // सद्दर्शनस्य हि कार्य मिथ्याश्रद्धानविच्छित्तिः, संज्ञानस्य मिथ्याज्ञानविच्छित्तिः, सच्चारित्रस्य मिथ्याचरणविच्छित्तिरिति च भिन्नानि दर्शनादीनि भिन्नकार्यत्वात्सुखदुः खादिवत् / पावकादिनानैकांत इति चेन्न, तस्यापि स्वभावभेदमंतरेण दाहपाकाद्यनेककार्यकारित्वायोगात्। दृङ्मोहविगमज्ञानावरणध्वंसवृत्तमुट्-। संक्षयात्मकहेतोश भेदस्तद्भिदि सिद्ध्यति // 65 // नीलपना और उत्पलपना आदि की एक द्रव्य में वृत्तिता (एक द्रव्य में रहना) होने से कथंचित् भेद के बिना सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता, जिससे एक जीव द्रव्य में दर्शनादि को सामानाधिकरणपना अभेद साधन में विरुद्ध नहीं होगा? अर्थात् सामानाधिकरणत्व होने से भी ज्ञान, दर्शन वा ज्ञान चारित्र में सर्वथा अभेद सिद्ध नहीं है। मिथ्याश्रद्धान, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के नाश रूप भिन्न-भिन्न कार्य, एकान्त से अभेद में दर्शनादि के संभव नहीं हैं॥६४॥ अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि में अभेद मान लेने पर उनका मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के नाश रूप भिन्न-भिन्न कार्य कैसे सिद्ध होंगे? ___सम्यग्दर्शन का कार्य मिथ्यादर्शन का विच्छेद करना है। मिथ्याज्ञान का विच्छेद सम्यग्ज्ञान का कार्य है और मिथ्याचारित्र का नाश सम्यक्चारित्र का कार्य है अतः सुख-दुःख आदि की तरह भिन्नभिन्न कार्य होने से सम्यग्दर्शन आदि पर्यायें पृथक्-पृथक् हैं। प्रश्न - अग्नि आदि के यह हेतु अनैकान्तिक होगा अर्थात् एक अग्नि के भी दाह, पाक आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं? ... उत्तर - अग्नि आदि की अपेक्षा दृष्टांत से यह हेतु अनैकान्तिक नहीं है अर्थात् भिन्न कार्य करने वाली अग्नि एक देखी जाती है। अतः भिन्न कार्य होने से दर्शनादि के भिन्नता का कथन करना अनैकान्तिक हेत्वाभास है, ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि स्वभाव भेद के बिना अग्नि के भी दाह (जलाना), पाक (पकाना) आदि अनेक कार्यकारित्वका अयोग है। अर्थात् पाचनादि भिन्न-भिन्न कार्यकारित्व होने से अग्नि में भी स्वभावभेद है। . दर्शनमोह का विगम, ज्ञानावरण का ध्वंस और चारित्रमोह के संक्षयात्मक हेतु की अपेक्षा से भेद होने पर दर्शन, ज्ञान और चारित्र में भेद सिद्ध होता ही है।॥६५॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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