SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३१९ - तेषां पूर्वस्य लाभेऽपि भाज्यत्वादुत्तरस्य च / नैकांतेनैकता युक्ता हर्षामर्षादिभेदवत् // 66 / / न चेदमसिद्धं साधनम्: तत्त्वश्रद्धानलाभे हि विशिष्टं श्रुतमाप्यते। - नावश्यं नापि तल्लाभे यथाख्यातममोहकम् // 67 // न ह्येवं विरुद्धधर्माध्यासेऽपि दर्शनादीनां सर्वथैकत्वं युक्तमतिप्रसंगात् / न च स्यावादिनः किंचिद्विरुद्धधर्माधिकरणं सर्वथैकमस्ति तस्य कथंचिद्भिनरूपत्वव्यवस्थितेः / न च सत्त्वादयो धर्मा निर्बाधबोधोपदर्शिताः क्वचिदेकत्रापि विरुद्धा, येन विरुद्धधर्माधिकरणमेकं वस्तु परमार्थतः न सिद्ध्येत् / अनुपलंभसाधनत्वात् सर्वत्र विरोधस्यान्यथा स्वभावेनापि स्वभाववतो विरोधानुषंगात् / ततो न विरुद्धधर्माध्यासो व्यभिचारी। / हर्ष अमर्षादि के भेद के समान सम्यग्दर्शनादि पूर्व के लाभ होने पर उत्तर भजनीय होने से एकान्त से सम्यग्दर्शनादि के एकता कहना युक्त नहीं है॥६६॥ इसलिए हमारा यह हेतु असिद्ध साधन (हेत्वाभास) भी नहीं है। क्योंकि तत्त्वश्रद्धान का लाभ होने पर विशिष्ट श्रुतज्ञान अवश्य प्राप्त होता ही है ऐसा नियम नहीं है तथा ज्ञान के लाभ होने पर निर्मोह यथाख्यात चारित्र के होने का नियम भी नहीं है॥६७॥ इस प्रकार विरुद्ध धर्म का आधार होने से सम्यग्दर्शनादि के सर्वथा एकत्व मानना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसंग दोष आता है। स्याद्वादियों के यहाँ विरुद्ध धर्मों का आधारभूत कोई भी पदार्थ सर्वथा एक नहीं माना गया है। उसमें कथंचित् भिन्नरूपपना ही युक्ति, आगम द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि धर्म किसी एक पदार्थ में रहते हुए भी बाधारहित ज्ञान के द्वारा देखे जाते हैं अतः विरुद्ध नहीं हैं। अन्यथा (कथंचित् एक ही वस्तु में अस्तिनास्ति आदि विरुद्ध धर्म नहीं रहेंगे तो) जिन धर्मों का एक वस्तु में साथ-साथ उपलम्भ हो रहा है, उनका भी परस्पर में विरोध माना जायेगा तब तो स्वभाव वाली वस्तु का अपने स्वभाव के साथ भी विरोध होने का प्रसंग आएगा। इससे सिद्ध होता है कि विरुद्ध गुणवाले गुणी द्रव्य जैसे भिन्न-भिन्न होते हैं वैसे ही एक द्रव्य के गुण और पर्याय भी अनेक विरुद्ध स्वभावों से युक्त होते हुए भिन्न हैं। अतः विरुद्ध धर्मों का अधिकरणत्व हेतु व्यभिचारी नहीं है। (दर्शन आदि के भेद सिद्ध हो जायेंगे)। 1. असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः / परीक्षामख षष्ठ परिच्छेद सत्र 22 / जिसकी सत्ता निश्चय नहीं है. वह असिद्ध हेत्वाभास है। 2. विरुद्ध धर्म वालों से भी कार्य की उत्पत्ति हो जायेगी।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy