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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 309 * न च तेन विरुध्येत त्रैविध्यं मोक्षवर्त्मनः। विशिष्टकालयुक्तस्य तत्त्रयस्यैव शक्तितः॥४६॥ क्षायिकरत्नत्रयपरिणामतो ह्यात्मैव क्षायिकरत्नत्रयं। तस्य विशिष्टकालापेक्षः शक्तिविशेष: ततो नार्थांतरं येन तत्सहितस्य दर्शनादित्रयस्य मोक्षवमनस्वैविध्यं विरुध्यते। तेनाऽयोगिजिनस्यांत्यक्षणवर्ति प्रकीर्तितम् / रत्नत्रयमशेषाघविघातकरणं ध्रुवम् // 47 // ततो नान्योऽस्ति मोक्षस्य साक्षान्मार्गो विशेषतः / पूर्वावधारणं येन न व्यवस्थामियति नः // 48 // नन्वेवमप्यवधारणे तदेकांतानुषंग इति चेत्, नायमनेकांतवादिनामुपालंभो नयार्पणादेकांतस्येष्टत्वात्, प्रमाणार्पणादेवानेकांतस्य व्यवस्थितेः। ज्ञानादेवाशरीरत्वसिद्धिरित्यवधारणम्। सहकारिविशेषस्याऽपेक्षयाऽस्त्विति केचन // 49 // इसलिए विशिष्ट काल से युक्त रत्नत्रय की शक्ति होने से मोक्षमार्ग का त्रिविधत्व भी विरुद्ध नहीं होता // 46 // - अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्ष की प्राप्ति के उपाय हैं, इसमें आगम और अनुमान से विरोध नहीं आता है। क्योंकि क्षायिक रत्नत्रय से परिणत होने से आत्मा ही क्षायिक रत्नत्रय है- अतः विशिष्टकाल की अपेक्षा शक्तिविशेष भी आत्मा की है, आत्मा से अर्थान्तर (भिन्न) नहीं है जिससे काल सहित सम्यग्दर्शनादि तीनों के मोक्षमार्ग का त्रैविध्य विरुद्ध होता है। अर्थात् विशिष्ट काल की अपेक्षा सहित रत्नत्रय आत्मपरिणाम है, वही मोक्ष का कारण है, काल को सहकारी कारण मान लेने से 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह सूत्र बाधित नहीं होता। अत: निश्चय से अयोगिजिन के अन्त्यक्षणवर्ती रत्नत्रय ही अशेष (सम्पूर्ण) अघ (कर्म-पापों) का क्षय करने वाला कहा गया है। इसलिए रत्नत्रय के सिवाय कोई दूसरा विशेष रूप से साक्षात् मोक्ष का अव्यवहित पूर्ववर्ती मार्ग नहीं है। जिससे हमारी पूर्वावधारणा (सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र ही मोक्षमार्ग है यह) व्यवस्था को प्राप्त नहीं होती है अर्थात् हमारी यह रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है' अवधारणा निर्दोष है।४७-४८॥ शंका - रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है' ऐसी अवधारणा करने पर एकान्तवाद का प्रसंग आता है? उत्तर - अनेकान्तवादियों के यह उलाहना लागू नहीं पड़ता- क्योंकि स्याद्वादियों को नय की अपेक्षा एकान्त इष्ट ही है, प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त की व्यवस्था होने से अर्थात् स्याद्वादियों के मत में नय की अपेक्षा एकान्त है और प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त। अतः अनेकान्त और समीचीन एकान्त दोनों ही इष्ट हैं। क्या मात्र तत्त्वज्ञान मुक्ति का हेतु है ? कोई कहता है कि ज्ञान से ही अशरीरत्व (मुक्ति) की सिद्धि होती है, ऐसी अवधारणा करके उस ज्ञान के ही विशेष कारणों की अपेक्षा करनी चाहिए // 49 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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