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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३०८ केवलापेक्षिणी ते हि यथा तद्वच्च तत्त्रयम्। सहकारिव्यपेक्षं स्यात् क्षायिकत्वेनपेक्षिता.॥४५॥ न क्षायिकत्वेऽपि रत्नत्रयस्य सहकारिविशेषापेक्षणं क्षायिकभावानां न हानिर्नाऽपि वृद्धिरिति प्रवचनेन बाध्यते, क्षायिकत्वे निरपेक्षत्ववचनात् / क्षायिको हि भावः सकलस्वप्रतिबंधक्षयादाविर्भूतो नात्मलाभे किंचिदपेक्षते, येन तदभावे तस्य हानिस्तत्प्रकर्षे च वृद्धिरिति / तत्प्रतिषेधपरं प्रवचनं कृत्स्नकर्मक्षयकरणे सहकारिविशेषापेक्षणं कथं बाधते? न च क्षायिकत्वं तत्र तदनपेक्षत्वेन व्याप्तं, क्षीणकषायदर्शनचारित्रयोः क्षायिकत्वेऽपि मुक्त्युत्पादने केवलापेक्षित्वस्य सुप्रसिद्धत्वात् / ताभ्यां तबाधकहेतोर्व्यभिचारात्। ततोऽस्ति सहकारी तद्रत्नत्रयस्यापेक्षणीयो युक्त्यागमाविरुद्धत्वात्। यदि कहो कि क्षीणकषायी के दर्शन, चारित्र केवलज्ञान की अपेक्षा रखते हैं, तो उसी प्रकार अर्हन्त का रत्नत्रय भी सहकारी कारणों की अपेक्षा रखता है, ऐसा कह सकते हैं। अर्हन्त का रत्नत्रय क्षायिक होने से दूसरे कारणों की अपेक्षा नहीं रखता है, ऐसा नहीं कह सकते // 45 / / .. प्रश्न - अर्हन्त के रत्नत्रय का क्षायिकत्व होने से सहकारी कारणों की अपेक्षा नहीं है- क्योंकि क्षायिक भावों के सापेक्ष होने पर क्षायिक भावों की हानि और वृद्धि नहीं होती' इस प्रवचन वचन में बाधा आती है, क्षायिकत्व में निरपेक्षत्व वचन होने से। अर्थात् ग्रन्थों में क्षायिक भावों को निरपेक्ष तथा हानिवृद्धि रहित माना है। कहा भी है कि क्षायिक भाव सकल स्वप्रतिबंध के क्षय से उत्पन्न होते हैं। इसलिए अपने आत्मलाभ में दूसरे किसी की अपेक्षा नहीं करते, जिससे सहकारी के अभाव में उनकी हानि तथा सहकारी कारणों के प्रकर्ष में उनकी वृद्धि होती हो। अर्थात् यदि क्षायिक भाव दूसरे सहकारी की अपेक्षा करते तो उन में हानि-वृद्धि अवश्य होती, परन्तु क्षायिक भावों में हानि-वृद्धि नहीं है अत: ये भाव निरपेक्ष हैं। उत्तर - आचार्य ऊपरकथित हेतु का खण्डन करते हैं। कृत्स्न (सम्पूर्ण) कर्मों के क्षय करने में सहकारी विशेष की अपेक्षा बाधित क्यों है? इसमें क्षायिकत्व होने से वह अनपेक्षत्व से व्याप्त नहीं है- अर्थात् जो-जो क्षायिक होता है, वह सहकारी विशेष की अपेक्षा नहीं करता है, ऐसी व्याप्ति नहीं है- क्योंकि क्षीणकषाय के दर्शन और चारित्र का क्षायिकत्व होने पर भी मुक्ति की उत्पत्ति में केवलज्ञान की अपेक्षा सुप्रसिद्ध ही है। उस क्षायिक दर्शन और क्षायिक चारित्र के द्वारा ‘क्षायिक भाव किसी की अपेक्षा नहीं करते निरपेक्ष होने से इस हेतु के बाधित होने से क्षायिकत्व हेतु अनैकान्तिक (व्यभिचारी) हेत्वाभास है। अर्थात् क्षायिकपना होने से रत्नत्रय निरपेक्ष ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता। अतः अर्हन्त भगवान के क्षायिक रत्नत्रय के सहकारी विशेष की अपेक्षा है, यह आगम और युक्ति (अनुमान) ज्ञान से अविरुद्ध है। अर्थात् क्षायिक रत्नत्रय को सापेक्ष मानने में युक्ति और आगम से कोई विरोध नहीं आता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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