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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 307 सहकारिविशेषस्यापेक्षणीयस्य भाविनः / तदैवासत्त्वतो नेति स्फुटं केचित् प्रचक्षते // 42 // कः पुनरसी सहकारी सम्पूर्णेनापि रत्नत्रयेणापेक्ष्यते? यदभावात्तन्मुक्तिमहतो न संपादयेत् ? इति चेत् - स तु शक्तिविशेषः स्याजीवस्याऽघातिकर्मणाम्। नामादीनां त्रयाणां हि निर्जराकृद्धि निश्चितः॥४३॥ ___ दंडकपाट प्रतरलोकपूरणक्रियानुमेयोऽपकर्षणपरप्रकृतिसंक्रमणहेतुर्वा भगवतः स्वपरिणामविशेषः शक्तिविशेषः सोऽन्तरङ्गः सहकारी निश्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य, तदभावे नामाघघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिःश्रेयसानुत्पत्तेः। आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्जरा, न पुनरुपक्रमात्तस्यानपवर्त्यत्वात् / तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनः प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात्।। क्षायिकत्वान्न सापेक्षमर्हद्रत्नत्रयं यदि। किन क्षीणकषायस्य दृक्चारित्रे तथा मते // 44 // भविष्यत् काल में होने वाले अपेक्षणीय सहकारी विशेष का असत्त्व होने से अर्हन्त के उसी क्षण में ऊर्ध्वगमन नहीं होता है, कोई ऐसा कहते हैं (वह योग्य है)॥४२॥ शंका - वे सहकारी कारण कौन से हैं जिनकी परिपूर्ण रत्नत्रय के द्वारा अपेक्षा की जाती है और उन सहकारी विशेष के अभाव में रत्नत्रय की पूर्णता होने पर भी अर्हन्त (सयोगकेवली) को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है? उत्तर - नामादि तीन (नाम, गोत्र, वेदनीय) अधातिया कर्मों की निर्जरा करने वाली जीव की शक्ति को ही विशेष सहकारी कारण माना गया है।॥४३॥ . . दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया के द्वारा अनुमेय भगवान केवली के कर्मों के संक्रमण-अपकर्षण में हेतु स्वपरिणाम विशेष ही मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण माने गये हैं। अर्थात् कर्मों के परप्रकृति रूप संक्रमण-अपकर्षण आदि में कारण भगवान के परिणाम विशेष ही मोक्ष के कारण हैं। जिनके अभाव में नामादि तीन घातिया कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती और न मोक्ष की उत्पत्ति हो सकती है। दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के परिणाम विशेष से तीन अघातिया कर्मों की निर्जरा होती है। आयु कर्म की निर्जरा यथाकाल अनुभव से ही होती है, उपक्रम से नहीं होती क्योंकि केवली भगवान के आयु का अपवर्तन नहीं होता है। उस सहकारी कारण की पूर्णता न होने से ही क्षायिक रत्नत्रयधारी सयोगकेवली प्रथम समय में मुक्ति को संपादन नहीं करते हैं। क्योंकि उस समय सहकारी कारणों का अभाव है। . यदि कहो कि क्षायिक होने से अर्हन्त भगवान का रत्नत्रय सापेक्ष नहीं है तो क्षीणकषायी के क्षायिक दर्शन और क्षायिक चारित्र भी क्षायिक होने से सापेक्ष नहीं होने चाहिए // 44 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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