________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-३१० तत्त्वज्ञानमेव निःश्रेयसहेतुरित्यवधारणमस्तु, सहकारिविशेषापेक्षस्य तस्यैव निःश्रेयससंपादनसमर्थत्वात् / तथा सति समुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य योगिनः सहकारिविशेषसंनिधानात्पूर्व स्थित्युपपत्तेरुपदेशप्रवृत्तेरविरोधात्, तदर्थं रत्नत्रयस्य मुक्तिहेतुत्वकल्पनानर्थक्यात्, तत्कल्पनेऽपि सहकार्यपेक्षणस्यावश्यंभावित्वात्, तत्त्रयमेव मुक्तिहेतुरित्यवधारणं माभूदिति केचित् / तेषां फलोपभोगेन प्रक्षयः कर्मणां मतः। सहकारिविशेषोऽस्य नाऽसौ चारित्रतः पृथक् // 50 // तत्त्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानस्य सहजस्याहार्यस्य चानेकप्रकारस्य प्रतिप्रमेयं देशादिभेदादुद्भवतः प्रक्षयात्तद्धेतुकदोषनिवृत्तेः प्रवृत्त्यभावादनागतस्य जन्मनो निरोधादुपात्तजन्मनश्श प्रावृत्तधर्माधर्मयोः फलभोगेन प्रक्षयणात् सकलदुःखनिवृत्तिरात्यं तिकी मुक्तिः, दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनंतरापायानिःश्रेयसमिति कैशिद्वचनात् / साक्षात्कार्यकारणभावोपलब्धेस्तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसमित्यपरैः प्रतिपादनात्, ज्ञानेन चापवर्ग: . प्रश्न - तत्त्वज्ञान ही मुक्ति का हेतु है, ऐसी अवधारणा होनी चाहिए। (तत्त्वज्ञान होते. ही मोक्ष हो जाने से केवली के धर्मोपदेश की प्रवृत्ति कैसे होगी, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सहकारी विशेष के सन्निधान के पूर्व स्थिति की उत्पत्ति होने से (सहकारी विशेष के अभाव में मुक्ति न होने से) धर्मोपदेश की प्रवृत्ति में कोई विरोध नहीं है (अर्थात् जब तक सहकारी विशेष का अभाव होगा तब तक तत्त्वज्ञानी संसार में रहकर धर्मोपदेश देंगे, इसमें कोई विरोध नहीं है।) अतः धर्मोपदेश के लिए रत्नत्रय के मुक्ति के हेतुत्व की कल्पना करना व्यर्थ है। तथा रत्नत्रय को मोक्ष का कारण मान लेने पर भी उसके सहकारी विशेष की अपेक्षा तो अवश्यम्भावी होगी, अत: "रत्नत्रय ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है" यह अवधारणा नहीं हो सकती। उत्तर - फलभोग से कर्मों का क्षय हो जाना ही ज्ञान का सहकारी विशेष है, वह चारित्र से पृथक् नहीं है अर्थात् ज्ञान का सहकारी चारित्र ही है।॥५०॥ . ___ कर्मों के फल में समता भाव रखना ज्ञान का कार्य है और समता का सहकारी कारण चारित्र ही है। कोई (नैयायिक) कहता है कि सहज और आहार्य मिथ्याज्ञान अनेक प्रकार का है। प्रत्येक प्रमेय (पदार्थ) में देशादि भेद से उत्पन्न मिथ्याज्ञान का तत्त्वज्ञान से क्षय हो जाता है। मिथ्याज्ञान के क्षय हो जाने से, उससे होने वाले दोषों की निवृत्ति हो जाती है, दोष के नाश हो जाने से प्रवत्ति का अभाव हो जाता है. प्रवत्ति के अभाव में अनागत जन्म का निरोध और प्रकृत धर्माधर्म का फल भोगकर उपात्त जन्म का क्षय होता है तथा अनागत जन्म का निरोध एवं उपात्त जन्म के नाश हो जाने से सकल दुःखों का आत्यन्तिक क्षय हो जाना ही मुक्ति है। दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर नाश हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर मिथ्याज्ञान के कार्य दोष भी नष्ट हो जाते हैं। मिथ्याज्ञान कारण है और दोष (विषयवासनादि) कार्य हैं। दोषरूप कारण के नष्ट होने पर दोष में प्रवृत्ति रूप कार्य नष्ट हो जाता है, प्रवृत्ति रूप कारण के नष्ट हो जाने पर उसके अभाव में जन्मरूप कार्य भी नहीं हो सकता। जन्मरूप कारण