________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 285 कस्मात् समवायोऽपि संयोगः प्रसज्यते मामके मते? युतसिद्धिर्हि भावानां विभिन्नाश्रयवृत्तिता। दधिकुण्डादिवत्सा च समाना समवायिषु // 17 // नन्वयुतसिद्धानां समवायित्वात् समवायिनां युतसिद्धिरसिद्धेति चेत् / तद्ववृत्तिर्गुणादीनां स्वाश्रयेषु च तद्वताम् / युतसिद्धिर्यदा न स्यात्तदान्यत्रापि सा कथम् // 18 // गुण्यादिषु गुणादीनां वृत्तिर्गुण्यादीनां तु स्वाश्रये वृत्तिरिति कथं न गुणगुण्यादीनां समवायिनां युतसिद्धिः? पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिरिति वचनात् / तथापि तेषां युतसिद्धेरभावे दधिकुण्डादीनामपि सा न स्याद्विशेषलक्षणाभावात्। शंका- हमारे मत (वैशेषिक/नैयायिक) में समवाय को भी संयोगपना कैसे हो जाता है? जैनाचार्य उत्तर देते हैं- क्योंकि आपके मत में पदार्थों की भिन्न-भिन्न आश्रयों में वृत्ति रहना ही युतसिद्धि मानी गई है। भिन्न-भिन्न पदार्थों का सम्बन्ध युतसिद्ध कहलाता है जैसे दही और कुण्डे का सम्बन्ध / इन दोनों का सम्बन्ध सर्वथा भिन्न होने से युतसिद्ध यानी संयोग सम्बन्ध कहलाता है। वही युतसिद्धि समवायी पदार्थों में भी समान रूप से विद्यमान है। अर्थात् समवायी (गुण-गुणी) में भी तुम्हारे मत में सर्वथा भेद ही माना जाता है- अर्थात् समवाय और संयोग एक ही हैं॥१७॥ शंका- नैयायिक कहते हैं कि अयुतसिद्ध (अपृथक्भूत गुण-गुणी) पदार्थों के ही समवायित्व होने से युतसिद्धि असिद्ध है? क्योंकि पृथक्भूत पदार्थों का सम्बन्ध युतसिद्ध होता है। उत्तर- जैनाचार्य कहते हैं कि जब भिन्न-भिन्न पदार्थों के समान गुण (ज्ञान) आदि की और गुणी की स्व आश्रय में वृत्ति युतसिद्ध नहीं होगी तब तो वह युतसिद्धि अन्यत्र (घट दूधादि में) कैसे होगी? // 18 // गुण, सत्ता, कर्म आदि का गुणी (आत्मा आदि) में सम्बन्ध होता है और गुणी का अपने आश्रय में सम्बन्ध होता है इस प्रकार भिन्न गुण-गुणी समवायियों का सम्बन्ध युतसिद्ध कैसे नहीं है। क्योंकि पृथक् आश्रय-आश्रितों के सम्बन्ध को ही युतसिद्ध माना है (आपके मत में गुण-गुणी सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं।) यदि पृथक्भूत गुण-गुणी के सम्बन्ध में भी युतसिद्धि का अभाव मानोगे तो पृथक्भूत दधि और कुण्डादि का सम्बन्ध भी युतसिद्ध नहीं होगा; क्योंकि दधि-कुण्ड के सम्बन्ध में और गुणगुणी के सम्बन्ध में विशेष लक्षण का अभाव है।