________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक-२८४ तथा सति न सा शक्तिस्तद्वतोऽत्यंतभेदिनी। सम्बन्धाभित्रसम्बन्धिरूपत्वात्तत्स्वरूपवत् // 15 // ननु गत्वा सुदूरमपि सम्बन्धतद्वतो क्यमुच्यते येनात्मनो द्रव्यादिरूपा शक्तिस्तत्संबंधाभिन्नसम्बन्धिस्वभावत्वादभिन्ना साध्यते, परापरसम्बंधादेव सम्बन्धस्य सम्बन्धिताव्यपदेशोपगमात् / न चैवमनवस्था, प्रतिपत्तुराकांक्षानिवृत्तेः क्वचित् कदाचिदवस्थानसिद्धेः प्रतीतिनिबंधनत्वात्तत्वव्यवस्थाया इति परे / तेषां संयोगसमवायव्यवस्थैव तावन्न घटते, प्रतीत्यनुसरणे यथोपगमप्रतीत्यभावात् / तथाहि संयोगो युतसिद्धानां पदार्थानां यदीष्यते। समवायस्तदा प्राप्तः संयोगस्तावके मते // 16 // तथा अनवस्था दोष के भय से सम्बन्ध और सम्बन्धी में एकत्व स्वीकार कर लेने पर सम्बन्ध से अभिन्न सम्बन्धी होने से स्वस्वरूप के समान शक्ति शक्तिमान से अत्यन्त भिन्न नहीं है, यह मानना ही पड़ेगा।॥१५॥ नैयायिक कहते हैं कि जिसके द्वारा आत्मा की द्रव्यादि रूप शक्ति, शक्तिमान के (आत्मा के) साथ. में अभिन्न सम्बन्धी स्वभाव होने से अभिन्न सिद्ध की जाती है, वह बहुत दूर जाकर भी सम्बन्ध और सम्बन्धी में (तादात्म्य रूप) एकत्व को नहीं कह सकती- अर्थात् शक्ति और शक्तिमान में एकत्व नहीं हो सकता क्योंकि. पर और अपर (भिन्न-भिन्न दो पदार्थों) के सम्बन्ध भाव से ही सम्बन्ध के सम्बन्धीत्व का व्यपदेश होता है। और इस प्रकार के कथन में अनवस्था दोष भी नहीं आता। क्योंकि ज्ञाता की आकांक्षा की निवृत्ति हो जाने से, कभी-न-कभी किसी स्थल पर ज्ञाता की अवस्थिति हो ही जाती है तथा प्रतीति को कारण मानकर तत्त्वों की व्यवस्था मानी जाती है। भावार्थ- नैयायिक कहते हैं कि सम्बन्ध-सम्बन्धी में एकता नहीं है- क्योंकि भिन्न-भिन्न दो पदार्थों के ही सम्बन्ध से सम्बन्धता होती है-ऐसा मानने पर अनवस्था (सम्बन्धी सम्बन्ध किसने कराया? गुणी में गुण का सम्बन्ध किसने कराया, सम्बन्ध किससे हुआ- संयोग से, संयोग किससे हुआ, समवायादि प्रकार से आदि आदि) दोष भी नहीं हो सकता- क्योंकि ज्ञाता जिज्ञासु की इस प्रकार पूछने की जिज्ञासा ही किसी स्थल पर समाप्त हो जाती है तथा किसी में किसी काल में स्वयं सम्बन्ध भी रहता है। तत्त्व व्यवस्था प्रतीति को कारण मान कर मानी जाती है। जैनाचार्य कहते हैं- कि प्रतीति (ज्ञान) के अनुसरण में इस प्रकार की प्रतीति-भिन्न-भिन्न गुणगुणी की प्रतीति का अभाव होने से उन नैयायिकों के संयोग और समवाय व्यवस्था ही घटित नहीं हो सकती। अर्थात् भिन्न दो पदार्थों का सम्बन्ध होने से संयोग समवाय घटित नहीं होता, प्रतीति के अनुसार तत्त्वव्यवस्था तो इष्ट है पर आपने संयोग और समवाय का जैसा स्वरूप माना है, उसके अनुसार प्रतीति नहीं होती है। सो देखो यदि तुम्हारे मत में पृथक्-पृथक् आश्रयों में रहने वाले युतसिद्ध (भिन्न-भिन्न) पदार्थों का संयोग सम्बन्ध होना ही इष्ट है तो वह संयोग ही है यानी उस समवाय सम्बंध को संयोगपना प्राप्त हो जावेगा // 16 //