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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 283 न ह्यात्मनोऽत्यंतं भिन्नार्थग्रहणशक्तिस्तस्येति व्यपदेष्टुं शक्या, संबंधत: शक्येति चेत्, कस्तस्यास्तेन संबन्धः? संयोगो द्रव्यरूपायाः शक्तेरात्मनि मन्यते / गुणकर्मस्वभावायाः समवायश्च यद्यसौ // 12 // - चक्षुरादिद्रव्यरूपायाः शक्तेरात्मद्रव्ये संयोगः सम्बन्धोऽन्तःकरणसंयोगादिगुणरूपाया: समवायश्च शब्दाद्विषयीक्रियमाणरूपायाः संयुक्तसमवायः सामान्यादेश्च विषयीक्रियमाणस्य संयुक्तसमवेतसमवायादिर्यदि मतः। तदाप्यांतरत्वेऽस्य संबन्धस्य कथं निजात्। सम्बंधिनोऽवधार्येत तत्सम्बन्धस्वभावता // 13 // सम्बन्धान्तरतः सा चेदनवस्था महीयसी। गत्वा सुदूरमप्यैक्यं वाच्यं सम्बन्धतद्वतोः // 14 // - जो अर्थग्रहण शक्ति आत्मा से अत्यन्त भिन्न है उसको आत्मा की है, ऐसा नहीं कह सकते। यदि कहो कि शक्तिमान का शक्ति के साथ सम्बन्ध है, इसलिये अर्थग्रहणशक्ति आत्मा की कहलाती है, तो उस शक्तिमान आत्मा के साथ अर्थग्रहणशक्ति का सम्बन्ध कौन सा है? भावार्थ- संयोग सम्बन्ध, समवाय सम्बन्ध, संयुक्त समवाय सम्बन्ध, संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध इनमें से कौन सा सम्बन्ध शक्ति और शक्तिमान के साथ है? घटादि द्रव्य के साथ चक्षु का सम्बन्ध संयोगसम्बन्ध है। घट रूप (गुण) के प्रत्यक्ष होने में संयुक्त समवाय सम्बन्ध होता है। घटरूपत्व के प्रत्यक्ष होने में जो कारण पड़ता है वह संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध है। शब्द के प्रत्यक्ष होने में समवाय सम्बन्ध होता है। शब्दत्व के प्रत्यक्ष होने में समवेत समवाय सम्बन्ध होता है और वस्तु के अभाव का प्रत्यक्ष होने में विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध होता है। ___ यदि आत्मा में द्रव्य रूप शक्ति का संयोग सम्बन्ध वा गुण कर्म स्वभाव रूप समवाय सम्बन्ध मानते हो क्योंकि आपने (वैशेषिकों ने) द्रव्य का दूसरे द्रव्य से संयोग सम्बन्ध माना है तथा चौबीस गुण और पाँच कर्म रूप सहकारी कारणों के सान्निध्य रूप शक्ति का उपादान कारण के साथ समवाय सम्बन्ध माना है॥१२॥ तो चक्षुरादि द्रव्य रूप शक्ति का आत्म द्रव्य में संयोग है। अन्त:करण (मन) की संयोगादि गुणरूप शक्ति का आत्मा में समवाय सम्बन्ध है। शब्दादि को विषय करने वाली शक्ति का संयुक्त समवाय सम्बन्ध है। तथा सामान्यादि का विषय करने वाले का संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध है तो ___ अपने सम्बन्धी से इस सम्बन्ध को भिन्न पदार्थ मानने पर इस सम्बन्ध की निज (अपने) सम्बन्धी के साथ सम्बन्ध स्वभावता है, यह कैसे जाना जा सकता है? अर्थात् यह सम्बन्ध इस सम्बन्धी का है, यह जानना दुष्कर होगा।॥१३॥ यदि कहो कि वह सम्बन्ध सम्बन्धान्तर से होता है तो महान् अनवस्था दोष आयेगा। अत: सुदूर जाकर भी सम्बन्ध और सम्बन्धवान में एकत्व मानना ही पड़ेगा / / 14 / /
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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