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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 282 न ह्यर्थग्रहणशक्तिर्ज्ञानमन्यत्रोपचारात्, परमार्थतोऽर्थग्रहणस्य ज्ञानत्वव्यवस्थिते; तदुक्तमर्थग्रहणं बुद्धिरिति, ततो न ज्ञानशक्तौ ज्ञानशब्दः प्रवर्तते येन तस्य करणसाधनता स्याद्वादिनां सिद्धयेत्। पुरुषाद्भिन्नस्य तु ज्ञानस्य गुणस्यार्थप्रमितौ साधकतमत्वात् करणत्वं युक्तं, तथा प्रतीतेर्बाधकाभावात् / भवतु ज्ञानशक्तिः करणं तथापि न सा कर्तुः कथंचिदभिन्ना युज्यते। शक्तिः कार्ये हि भावानां सान्निध्यं सहकारिणः। सा भिन्ना तद्वतोत्यंतं कार्यतश्चेति कश्चन // 10 // ज्ञानादिकरणस्यात्मादेः सहकारिणः सानिध्यं हि शक्तिः स्वकार्योत्पत्तौ न पुनस्तद्वत् स्वभावकृता शक्तिमतः कार्याच्चात्यंतं भिन्नत्वात्तस्या इति कश्चित्। ... तस्यार्थग्रहणे शक्तिरात्मनः कथ्यते कथम्। भेदादतिरस्येव संबंधात् सोऽपि कस्तयोः।११॥ शक्ति एवं शक्तिमान का सम्बन्ध आत्मा की अर्थग्रहण शक्ति ज्ञान नहीं है, सिवाय उपचार होने से। अर्थात् उपचार से अर्थ ग्रहण करने की शक्ति को ज्ञान कहा जा सकता है, परन्तु परमार्थ से तो अर्थ के विशेषाकारों को ग्रहण करने वाले के ज्ञानपने की व्यवस्था हो रही है। (अर्थग्रहण करने वाला तो ज्ञान ही है) सो ही कहा है 'अर्थग्रहणं बुद्धिरिति' अर्थ ग्रहण करने वाला गुण बुद्धि ही है। अतः ज्ञानशक्ति में ज्ञान शब्द प्रवृत्त नहीं होता, जिस ज्ञान शब्द से स्याद्वादी करणत्व सिद्ध करते हैं। अर्थात् जिस शक्ति से स्याद्वादी ज्ञान शब्द से करणत्व सिद्ध करते हैं, वह ज्ञान शब्द ज्ञान शक्ति में प्रवृत्त नहीं होता। अतः पुरुष (आत्मा) से भिन्न ज्ञानगुण के ही अर्थ की प्रमिति के प्रति साधकतम होने से करणत्व मानना युक्त है- क्योंकि इस प्रकार आत्मा से भिन्न ज्ञान गुण की प्रतीति होने में बाधक प्रमाण का भी अभाव है। अथवा- जैन मतानुसार ज्ञान शक्ति को करणत्व मान ही लिया जाय (कि ज्ञानशक्ति के द्वारा आत्मा अर्थ ग्रहण करता है) तो भी वह अर्थग्रहणशक्ति शक्तिमान कर्ता आत्मा से कथंचित् अभिन्न नहीं हो सकती अर्थात् वह आत्मा से सर्वथा भिन्न ही होती है कथंचित् अभिन्न नहीं। कोई (नैयायिक) कहता है कि कार्य की उत्पत्ति में सहकारी कारणों का सान्निध्य ही पदार्थ की शक्ति है और वह शक्ति कार्य होने से शक्तिमान पदार्थ से अत्यन्त भिन्न (पृथक्) है॥१०॥ सहकारी ज्ञानादिकरणों की आत्मादि के स्वकार्य की उत्पत्ति में सान्निध्य (निकटता) ही शक्ति कहलाती है- वह शक्तिमान के समान शक्ति स्वभावकृत नहीं है और शक्तिमान का कार्य होने से शक्तिमान से शक्ति की अत्यन्त भिन्नता है। जैनाचार्य का प्रश्न- अर्थग्रहण करने की शक्ति यदि आत्मा से सर्वथा पृथक् है, तो वह आत्मा की कैसे कहलाती है? यदि कहो कि सम्बन्ध से आत्मा की कहलाती है तो शक्ति एवं शक्तिमान का सम्बन्ध कौन सा है? // 11 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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