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________________ .. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 281 नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातं तच्च विरुद्धमेवेति चेत् न, स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात् दर्शनज्ञानपरिणामो हि करणमात्मनः कर्तुः कथञ्चिद् भिन्नं वढेर्दहनपरिणामवत्, कथमन्यथाऽग्निर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेनेत्यविभक्तकर्तृकं करणमुपपद्यते। स्यान्मतं / विवादापन्नकरणं कर्तुः सर्वथा भिन्नं करणत्वाद्विभक्तकरणवदिति / तदयुक्तं / हेतोरतीतकालत्वात् / प्रत्यक्षतो ज्ञानादिकरणस्यात्मादेः कर्तुः कथंचिदभिन्नस्य प्रतीतेः। समवायात्तथा प्रतीतिरिति चेन्न, कथंचित्तादात्म्यादन्यस्य समवायस्य निराकरणात् / पक्षस्यानुमानबाधितत्वाच्च नायं हेतुः। तथाहि- "करणशक्तिः शक्तिमतः कथंचिदभिन्ना तच्छक्तित्वात्, या तु न तथा सा न तच्छक्तिर्यथा व्यक्तिरन्या, तच्छक्तिश्चात्मादेः करणशक्तिस्तस्माच्छक्तिमतः कथंचिदभिन्ना। नन्वेवमात्मनो ज्ञानशक्तौ ज्ञानध्वनिर्यदि। तदार्थग्रहणं नैव करणत्वं प्रपद्यते // 9 // कर्ता और करण की एकता शंका- दर्शन आदि शब्दों की इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर कर्ता और करण एक हो जाता है किन्तु यह बात विरुद्ध है? . . समाधान- ऐसा नहीं कहना क्योंकि स्वपरिणाम और परिणामी में भेदविवक्षा होने पर उक्त प्रकार से कथन किया गया है। क्योंकि अग्नि के दाह परिणाम की तरह कर्ता आत्मा के ज्ञान, दर्शन परिणाम कथंचित् भिन्न होने से करण हैं। अन्यथा (कथंचित् भेदविवक्षा नहीं मानने पर) अग्नि दाह परिणाम के द्वारा ईंधन को जलाती है, ऐसा कर्ता को अविभक्त करने वाला करण कैसे उत्पन्न हो सकता है। प्रश्न- विवादापन्न करण, कर्ता से सर्वथा भिन्न होता है करण होने से, भिन्न (परशुआदि) करण के समान / उत्तर- इस प्रकार कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस अनुमान में दिया गया करणत्व हेतु बाधित हेत्वाभास है। साधनं काल के व्यतीत हो जाने पर कहे गये बाधित हेत्वाभास को अतीत काल हेतु कहते हैं। अथवा 'कर्ता से करण भिन्न ही होता है- करण होने से' इस हेतु का पूर्व में खण्डन कर चुके हैं कि प्रत्यक्षज्ञान से आत्मा कर्ता से ज्ञानादि करण के कथचित भेद प्रतीत होता है। (अयतसिद्ध लक्षण) समवाय सम्बन्ध 'इसमें यह है' इस प्रकार की बुद्धि प्रवृत्ति का कारण होती है। अतः कर्ता और करण में अभेद का व्यपदेश (प्रतीति) कराती है, ऐसा भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध के अतिरिक्त कोई अन्य समवाय सम्बन्ध है, इसका पूर्व में खण्डन कर चुके हैं। तथा करण होने से ज्ञान दर्शन आत्मा से भिन्न होने चाहिए, इसमें जो करण हेतु दिया है वह पक्ष के अनुमान बाधित होने से हेतु ही नहीं है। करणरूप शक्ति (पक्ष) अपने शक्तिमान से कथंचित् द्रव्य रूप से अभिन्न है (साध्य) उस शक्तिमान की शक्ति होने से (हेतु)। जो करण रूप शक्ति कथंचित् अभिन्न नहीं है अपने शक्तिमान से, वह तो उसकी शक्ति ही नहीं जैसे कि अन्य दूसरी व्यक्ति। करण शक्ति आत्मा की है, वह शक्तिमान आत्मा आदि से कथंचित् अभिन्न ही है। शंका- यदि आत्मा की ज्ञानशक्ति में ज्ञान शब्द का प्रयोग करते हो अर्थात् ज्ञानशक्ति को ज्ञान कहते हो, तब तो अर्थग्रहण रूप उपयोगात्मक ज्ञान कथमपि करणपने को प्राप्त नहीं हो सकता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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