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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 280 तत्र भेदविवक्षायां स्वविवर्तविवर्तिनोः / दर्शनं ज्ञानमित्येषः शब्दः करणसाधनः // 6 // पुंसो विवर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानकर्मणा। स्वयं तच्छक्तिभेदस्य साविध्येन प्रवर्तनात् // 7 // करणत्वं न बाध्येत वहेर्दहनकर्मणा। स्वयं विवर्तमानस्य दाहशक्तिविशेषवत् // 8 // यथा वह्वेर्दहन क्रियया परिणमतः स्वयं दहनशक्तिविशेषस्य तत्साविध्येन वर्तमानस्य साधकतमत्वात् करणत्वं न बाध्यते, तथात्मनः श्रद्धानज्ञानक्रियया स्वयं परिणमतः साविध्येन वर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानशक्तिविशेषस्यापि साधकतमत्वाविशेषात्, ततो दर्शनादिपदेषु व्याख्यातार्थेषु दर्शनं ज्ञानमित्येषस्तावच्छब्दः करणसाधनोऽवगम्यते / दर्शनविशुद्धिशक्तिविशेषसन्निधाने तत्त्वार्थान् पश्यति श्रद्धत्तेऽनेनात्मेति दर्शनं, ज्ञानशुद्धिशक्तिसन्निधाने जानात्यनेनेति ज्ञानमिति। जाता है और प्रसिद्ध आगमादि के उपमेयत्व की प्रतीति होती है। क्योंकि आगमादि के समान समुद्र आदि सर्व प्राणियों के प्रत्यक्ष प्रसिद्ध नहीं है। महत्त्व (महान्) होने से अप्रत्यक्ष भी समुद्रादि के उपमानत्व और प्रत्यक्ष प्रसिद्ध आगमादि के उपमेयत्व हो जाता है, ऐसा कहने पर तो महान् होने से मोक्षमार्ग के उपमानत्व और शेष लौकिक मार्गों के उपमेयत्व कहना ही ठीक है- अत: यह 'मार्ग इव मार्ग' (मार्ग के समान मोक्षमार्ग) है- यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग तो स्वयं प्रधान मार्ग है। स्वकीय पर्याय-पर्यायी में भेदविवक्षा करने पर दर्शन और ज्ञान शब्द करण साधन हैं अर्थात् 'ज्ञायते इति ज्ञानं दर्श्यते इति दर्शनं'। स्वयं दहनक्रिया के द्वारा विवर्तमान (परिणत) अग्नि के दाहशक्ति विशेष के समान स्वकीय श्रद्धान, ज्ञान और क्रिया के शक्तिभेद के सहकारित्व से प्रवर्तमान होने से विवर्तमान पुरुष के ज्ञान-दर्शन के करण साधनत्व बाधित नहीं है।६-७-८॥ जिस प्रकार दहन क्रियाविशेष से परिणत अग्नि के दहनक्रियाविशेष के सहकारित्व से वर्तमान दहनक्रिया के करणत्व बाधित नहीं है उसी प्रकार स्वयं परिणत श्रद्धान, ज्ञान, क्रिया के सहकारित्व से वर्तमान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान, शक्ति विशेष के साधकतमत्व हैं। क्योंकि अग्नि के दाह परिणाम और आत्मा के ज्ञान-दर्शन में कोई विशेषता नहीं है। इसलिए व्याख्यात अर्थ वाले ज्ञान दर्शन आदि पदों में दर्शन और ज्ञान' ये शब्द करण साधन हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिस दर्शनविशुद्धि की विशेष शक्ति का सन्निधान होने पर आत्मा जीवादि पदार्थों को देखता है या श्रद्धान करता है, उस शक्तिविशेष को दर्शन कहते हैं। ___ जिस ज्ञानशुद्धि की शक्तिविशेष का सन्निधान होने पर आत्मा जीवादि पदार्थों को जानता है, वह शक्तिविशेष ज्ञान है। 1. जैसे अप्रसिद्ध समुद्र, मेरु आदि पर्वत, देव आदि की उपमा दी जाती है सागर के समान गंभीर है, मेरु के समान अचल है, देव के समान रूपवान है, आदि। 2. जिनवचन दीपक के समान सन्मार्ग दिखाने वाले हैं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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