________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 279 . न हि स्वयमनभिप्रेत-प्रदेशाप्तेरुपायोऽभिप्रेतप्रदेशाप्तेरुपायो वा मार्गो नाम, सर्वस्य सर्वमार्गत्व प्रसंगात् / नापि तदुपाय एव सोपद्रवः सद्भिः प्रशस्यते तस्य कुमार्गत्वात् / तथा च मार्गेरन्वेषणक्रियस्य करणसाधने घजि? सति मार्ग्यतेऽनेनान्विष्यतेऽभिप्रेतः प्रदेश इति मार्ग;, शुद्धिकर्मणो वा मृजेसृष्टः शुद्धोसाविति मार्गः प्रसिद्धो भवति / न चेवार्थाभ्यन्तरीकरणात् सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इति युक्तं, तस्य स्वयं मार्गलक्षणयुक्तत्वात् / पाटलिपुत्रादिमार्गस्यैव तदुपमेयत्वोपपत्तेः मार्गलक्षणस्य निरुपद्रवस्य कात्य॑तोऽसंभवात् / तदेकदेशदर्शनात् तत्र तदुपमानप्रवृत्तेः प्रसिद्धत्वादुपमानं पाटलिपुत्रादिमार्गोऽप्रसिद्धत्वान्मोक्षमार्गास्तूपमेय इति चेन्न, मोक्षमार्गस्य प्रमाणतः प्रसिद्धत्वात् / समुद्रादेरसिद्धस्याप्युपमानत्वदर्शनात् तदागमादेः प्रसिद्धस्योपमेयत्वप्रतीतेः / न हि सर्वस्य तदागमादिवत्समुद्रादयः प्रत्यक्षतः प्रसिद्धाः / समुद्रादेरप्रत्यक्षस्यापि महत्त्वाटुपमानत्वं तदागमादेः प्रत्यक्षस्याप्युपमेयत्वमिति चेत्, तर्हि मोक्षमार्गस्य महत्त्वादुपमानत्वं युक्तमितरमार्गस्योपमेयत्वमिति न मार्ग इव मार्गोऽयं स्वयं प्रधानमार्गत्वात्। जो स्वयं को इष्ट नहीं है ऐसे प्रदेश की प्राप्ति का उपाय तथा जो अन्य लोलुपीजनों को इष्ट है, ऐसे प्रदेश की प्राप्ति का उपाय ये दोनों सच्चे मार्ग नहीं बन सकते क्योंकि ऐसा मानने पर तो र त्वि का प्रसंग आयेगा। .. सोपद्रव मार्ग भी विद्वानों के द्वारा स्वीकार नहीं किया गया है, क्योंकि सोपद्रव मार्ग के कुमार्गत्व है अर्थात् जैसे चोर आदि से उपद्रवित मार्ग से जाने वाले सुखपूर्वक इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकते हैं उसी प्रकार उपद्रवित (मिथ्यादर्शन आदि से युक्त) मार्ग से मोक्षपथिक मोक्ष पद को प्राप्त नहीं कर सकते। अत: मार्ग का निरुपद्रव विशेषण हैं। , अन्वेषण क्रिया से मार्ग शब्द की उत्पत्ति करण साधन से होती है। जिसके द्वारा अभिप्रेत प्रदेश का अन्वेषण किया जाता है, वह मार्ग होता है। मृज् धातु शुद्धि अर्थ में होती है। शुद्धि कर्म से मृष्टः शुद्ध है, वह मार्ग प्रसिद्ध होता है। अर्थात् जो कंटकादि से रहित शुद्ध स्वच्छ है शद्ध स्वच्छ होता है, वह मार्ग कहलाता है। उस शद्ध मार्ग से यात्री सुखपूर्वक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि से शुद्ध मार्ग से सुखपूर्वक मोक्ष स्थान पर पहुंच जाते हैं। इव समान, अर्थ अभ्यन्तरीकरण होने से सम्यग्दर्शनादि मार्ग के समान मोक्षमार्ग है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि मोक्षमार्ग तो स्वयं ही मार्गत्व लक्षण से युक्त है। सम्पूर्ण रूप से निरुपद्रव मार्गलक्षण की असंभवता होने से पाटलिपुत्रादि मार्ग के ही उपमेयत्व की उत्पत्ति हो सकती है और उसी के एकदेश निरुपद्रव दृष्टिगोचर होने से वहीं पर उपमान की प्रवृत्ति होती है अर्थात् पाटलिपुत्र मार्ग आदि ही उपमान एवं उपमेय बन सकते हैं, मोक्षमार्ग के प्रति इन मार्गों की उपमा नहीं दी जा सकती। अत: 'मार्ग इव मार्गः' ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है। शंका- प्रसिद्ध होने से पाटलिपुत्रादि देश के मार्ग तो उपमान हैं और अप्रसिद्ध होने से मोक्षमार्ग उपमेय है अत: 'मार्ग इव मार्ग' ऐसा मोक्षमार्ग के प्रति व्यपदेश होता है, इसमें क्या हानि है? उत्तर- मोक्षमार्ग अप्रसिद्ध नहीं है क्योंकि प्रमाण के द्वारा मोक्षमार्ग प्रसिद्ध है। तथा ऐसा भी एकान्त नहीं है कि प्रसिद्ध उपमान होता है और अप्रसिद्ध उपमेय। क्योंकि अप्रसिद्ध समुद्रादि के भी उपमानत्व देखा 1. अकलंक देव तथा पूज्यपाद स्वामी ने 'मृजेःशुद्धिकर्मणो मार्ग इवार्थाभ्यन्तरीकरणात् मार्ग इव मार्गः' ऐसा लिखा है- कि मार्ग के समान मार्ग है परन्तु विद्यानन्द आचार्य इस ग्रन्थ में इसका खण्डन करते हैं- इवार्थाभ्यन्तरीकरण नहीं है, यह तो स्वयं प्रसिद्ध मार्ग है।