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________________ +22. 卐 न्याय ग्रन्थों की रचना का हेतु卐 न्यायशास्त्र प्रमाणभूत शास्त्र है। इतना ही नहीं, इतर सिद्धांत, व्याकरण, साहित्य, चरणानुयोग, करणानुयोग, प्रथमानुयोग आदि ग्रन्थों में प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए साधन है। द्वादशांग वाणी में दृष्टिवाद नामक जो अन्तिम अंग है, उससे प्रसृत यह न्यायशास्त्र है। न्यायशास्त्र के द्वारा ही सिद्धान्तकथित विषयों को कसौटी पर कसकर सिद्ध किया जाता है। जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित तत्त्वों की प्रामाणिकता न्यायशास्त्र से ही जानी जाती है। वस्तु का सर्वांश एवं सर्वांग से यथार्थ दर्शन न्यायशास्त्र के द्वारा ही होता है। न्यायशास्त्र की आधारशिला स्याद्वाद या अनेकान्त है तो प्रमाण और नय उसके दो पंख हैं। नय एवं प्रमाण रूपी पंखों को धारण कर स्याद्वाद यथेच्छ सर्वत्र जल, स्थल, आकाश में भ्रमण कर सकता है। इस स्याद्वाद की गति निर्बाध, आतंकरहित और वेगवती है। उसमें उपरोध करने वाली शक्ति संसार में नहीं है। संसार में युक्ति प्रयुक्त करने की योग्यता वाले विचक्षण पुरुष हर विषय को विवादास्पद बना सकते हैं। उस विषय को, उस कथन को एवं युक्ति को तर्क की कसौटी पर कसकर देखना होगा कि वह सम्यक् . है या मिथ्या है ? युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध जो वचन है, वह सम्यक् तर्क है। तर्क में सुतर्क भी होता है, कुतर्क भी होता है। परन्तु सुतर्क ग्राह्य है, उपादेय है, कुतर्क त्याज्य है, निषेध्य है। सुतर्क के द्वारा ही द्रव्य की प्रतिष्ठा होती है। द्रव्य में द्रव्य की सिद्धि, गुण में गुणत्व की सिद्धि, पर्याय में उत्पाद-व्यय की सिद्धि आदि सभी तर्कपूर्ण दृष्टि से होती है। प्रतिदिन उपयोग में आने वाले सर्व कार्य और वचनों में भी न्याय का पुट लगा रहता है। अन्यायपूर्ण कार्य एवं, वचनों से विवाद, कलह, संघर्ष उत्पन्न होते हैं। इसलिए शांति एवं सन्तोष-प्रिय मानव को प्रत्येक कार्य एवं वचन, न्याय एवं युक्ति संगत करने और बोलने का प्रयत्न करना चाहिए। परमपूज्य समन्तभद्राचार्य ने अरहंत परमेश्वर की स्तुति करते हुए देवागमस्तोत्र में लिखा है कि स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्। अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ हे भगवन् ! आपके वचन युक्ति और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध होने से आप ही निर्दोष हैं। जो ज्ञान प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं है वही न्यायशास्त्र के लिए सम्मत है, उसी से पदार्थ का निर्दोष ज्ञान होता है। इसीलिए सिद्धान्तशिरोमणि आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि प्रमाणनयैरधिगमः, प्रमाण एवं नय के द्वारा पदार्थों का ज्ञान होता है। इस परिपाटी को सिखाने वाला न्यायशास्त्र है। इस सरणि को छोड़कर हम पदार्थों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। हमारे ज्ञान में प्रमाण की सत्ता रहेगी या नयविवक्षा रहेगी। इसके बिना पदार्थों का चतुर्मुखी ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए आगम, सिद्धान्त एवं लोकव्यवहार की सिद्धि-प्रसिद्धि के लिए तथा स्वमत-स्थापन और परमत-खण्डन कर वस्तु के वस्तुत्व को जानने के लिए न्यायशास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता है। पूज्यपाद, समन्तभद्र, अकलंक देव, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, माणिक्यनंदी, अनन्तवीर्य आदि जैनाचार्यों ने न्यायशास्त्रों की रचना कर भगवान्
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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