________________ + 21+ (4) पत्रपरीक्षा - यह ग्रन्थकार की चतुर्थ रचना है। इसमें अन्य दर्शनों के पत्रलक्षणों की समालोचनापूर्वक जैन दृष्टि से पत्र का लक्षण किया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवों को ही अनुमानांग बतलाया है। यह गद्य-पद्यात्मक लघु तर्करचना बड़ी सुन्दर और प्रवाहपूर्ण है। (5) सत्यशासनपरीक्षा - आचार्य विद्यानन्द की पाँचवीं मौलिक रचना 'सत्यशासनपरीक्षा' है। इसमें पुरुषाद्वैत आदि 12 शासनो की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा की गई है। परन्तु 12 शासनों में 9 शासनों की पूरी और प्रभाकर शासन की अधूरी परीक्षाएँ ही इसमें उपलब्ध होती हैं। प्रभाकरशासन का शेषांश, तत्त्वोपप्लवशासनपरीक्षा और अनेकान्तशासनपरीक्षा इसमें अनुपलब्ध है। इससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ आचार्यश्री की अन्तिम रचना है जिसे वे पूर्ण नहीं कर सके। रचना तर्कणाओं से ओतप्रोत और अत्यन्त विशद है। (6) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र - स्वामी समन्तभद्र के देवागमस्तोत्र, युक्त्यनुशासनस्तोत्र की तरह यह भी आचार्य विद्यानन्द की तार्किककृति है तथा जटिल एवं दुरूह है। इसमें कुल 30 पद्य हैं। 29 पद्य तो ग्रन्थ के विषय के प्रतिपादक हैं और अन्तिम पद्य अन्तिम वक्तव्य एवं उपसंहार के रूप में है। . ग्रन्थ का विषय श्रीपुरस्थ (अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ) भगवान पार्श्वनाथ हैं। कपिलादिक में अनाप्तता बतलाकर उन्हें इसमें आप्त सिद्ध किया गया है और उनके वीतरागत्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्ग-प्रणेतृत्व इन असाधारण गुणों की स्तुति की गई है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने जटिल और सरल दोनों प्रकार की रचनायें की हैं। ग्रन्थकार के 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' और 'अष्टसहस्री' गत उनके अगाध पाण्डित्य को देखकर यह आश्चर्य होने लगता है कि उनकी उस पाण्डित्यगर्भ लेखनी से ‘परीक्षान्त' ग्रन्थों में सरल और विशद रचना कैसे प्रसूत हुई ? वास्तव में, यह उनकी सुयोग्य विद्वत्ता का सुन्दर और सुमधुर फल ही है। .. डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने 'आप्तपरीक्षा' की प्रस्तावना में लिखा है- “सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्द ने जब देखा कि मीमांसादर्शन के प्रतिपादक जैमिनी के मीमांसासूत्र पर शवर के भाष्य के अलावा भट्ट कुमारिल का मीमांसाश्लोकवार्तिक भी है तब उन्होंने जैनदर्शन के प्रतिपादक श्री गृद्धपिच्छाचार्य रचित सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र' पर अकलंकदेव के 'तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य' से अतिरिक्त 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' बनाया और उसमें अपना अगाध पाण्डित्य एवं तार्किकता भर दी जिसे उच्चकोटि के विशिष्ट दार्शनिक विद्वान् ही अवगत कर सकते हैं। साधारण लोगों का उसमें प्रवेश पाना बड़ा कठिन है। अतएव उन्होंने जैनदर्शनजिज्ञासु प्राथमिकजनों के बोधार्थ प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा आदि परीक्षान्त सरल एवं विशद ग्रन्थों की रचना की। प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों का नामकरण आचार्य विद्यानन्द ने दिङ्नाग की आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीर्ति की सम्बन्धपरीक्षा, धर्मोत्तर की प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा और कल्याणरक्षित की श्रुतिपरीक्षा जैसे पूर्ववर्ती परीक्षान्त ग्रन्थों को लक्ष्य में रखकर किया है।" . - आर्यिका सुपार्श्वमती 卐卐卐