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________________ अर्हत्परमेश्वर के द्वारा प्रतिपादित तत्त्व का विवेचन किया है। इन महान् आचार्यों ने अपने अगाध पांडित्य के द्वारा जैन सिद्धान्त की समीचीनता का दर्शन युक्ति और आगम के अविरोधी वचनों एवं अपने तर्क-कौशल के द्वारा कराया। यही कारण है कि आज जैन दर्शन निर्दोष रूप से और पूर्वापर अविरोध रूप से व्यवस्थित है। यथार्थ में जब तत्त्वनिर्णय ऐकान्तिक होने लगा और उसे उतना ही माने जाने लगा तथा आर्हत-परम्परा ऋषभादि तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व-व्यवस्थापक स्याद्वाद न्याय को भूलने लगी तो उसे उज्जीवित एवं प्रभावित करने के लिए आचार्यदेवों ने अनेक न्यायग्रन्थों की रचना की। . दृष्टिवाद जैनश्रुत का १२वाँ अंग है जिसमें तीन सौ त्रेसठ विभिन्न वादियों की एकान्त दृष्टियों का निरूपण और समीक्षणपूर्वक उनका स्याद्वाद नय से समन्वय उपलब्ध है। इसीलिए श्रुत के मूलकर्ता ऋषभादि सभी तीर्थंकरों को श्री समन्तभद्राचार्य ने स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं जैसे पद-प्रयोगों के द्वारा स्याद्वादी (स्याद्वाद प्रतिपादक) कहा है। अकलंक देव ने भी चतुर्विंशति तीर्थंकरों को स्याद्वाद का प्रवक्ता और उनके शासन को स्याद्वाद रूप अमोघ चिह्न से युक्त बतलाया है। षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में यद्यपि स्याद्वाद की स्वतंत्र चर्चा नहीं मिलती है तथापि उनमें सिद्धान्त प्रतिपादन स्यात्' (सिया अथवा सिय) शब्द को लेकर अवश्य प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ मनुष्यों को पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों बतलाते हुए कहा गया है कि 'मण्णुस्सा सिया पज्जत्ता, सिया अपजत्ता' अर्थात् मनुष्य स्यात् पर्याप्तक हैं, स्यात् अपर्याप्तक हैं। इस प्रकार आगम ग्रन्थों में 'स्यात्' शब्द को लिये हुए विधि और निषेध इन दो वचन प्रकारों से उपलब्ध होता है। आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव ने उपरिकथित विधि और निषेध वचन प्रकारों में पाँच वचन प्रकार और मिलाकर सात वचन प्रकारों से वस्तु-निरूपण का स्पष्ट उल्लेख किया है। यथा- . सिय अस्थि णत्थि उहयं अवत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। दव्यं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि॥ पंचास्तिकाय गा.१४॥ 'स्यादस्ति द्रव्यं, स्यान्नास्ति द्रव्यं, स्यादुभयं, स्यादवक्तव्यं, स्यादस्त्यवक्तव्यं, स्यानास्त्यवक्तव्यं, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यं।' इन सात भंगों का यहाँ उल्लेख हुआ है और उनको लेकर आदेशवशात् (नय विवक्षानुसार) द्रव्य निरूपण करने की सूचना की है। आचार्य कुन्दकुन्द ने यह भी प्रतिपादित किया है कि यदि सद्प ही द्रव्य है तो उसका विनाश नहीं हो सकता और यदि असद्प ही द्रव्य है तो उसका उत्पाद संभव नहीं है। क्योंकि यह देखा जाता है कि गेहूँ पर्याय से नष्ट, रोटी पर्याय से उत्पन्न और पुद्गल द्रव्य सामान्य से ध्रुव रहने से पुद्गल द्रव्य उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है। इससे प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समय में जैन वाङ्मय में दर्शन का रूप तो आने लगा था, परन्तु उसका विकास नहीं हो सका था। - यद्यपि भाव मिथ्यात्व की अपेक्षा तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड अनादिकालीन हैं परन्तु व्यवहार में आदिनाथ भगवान के पौत्र एवं भरत चक्रवर्ती के पुत्र मारीचकुमार ने इन्हें प्रगट किया था। उसकी परम्परा अभी तक चल रही है तथापि विशेष रूप से वाद का विषय कुन्दकुन्द के समय से प्रारम्भ हुआ। 1. धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः / ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यो स्वात्मोपलब्धये। लघीयः का 1-1 // 2. श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांछन / जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं // प्रमाणसंग्रह 1-1 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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