________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक- 274 द्वैविध्यं, प्रणिधानविशेषोत्थं द्वैविध्यमस्येति प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्यं, तच्चात्मनो रूपं / यथास्थितार्थास्तत्त्वार्थास्तेषां श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिहोद्देष्टव्यं तथैव निर्दोषवक्ष्यमाणत्वात् / सम्यग्ज्ञानलक्षणमिह निरुक्तिलभ्यं व्याचष्टे - स्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो बाधवर्जितः। सदा सर्वत्र सर्वस्य सम्यग्ज्ञानमनेकधा॥२॥ परिच्छेदः सम्यग्ज्ञानं न पुनः फलमेव ततोऽनुमीयमानं परोक्षं सम्यग्ज्ञानमिति तस्य निराकरणात् / स चाकारस्य भेदस्य न पुनरनाकारस्य किंचिदिति प्रतिभासमानस्य परिच्छेदः तस्य दर्शनत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् / स्वाकारस्यैव परिच्छेदः सोऽर्थाकारस्यैव वेति च नावधारणीयं तस्य तत्त्वप्रतिक्षेपात् / संशयितोऽकिंचित्करो वा स्वार्थाकारपरिच्छेदस्तदिति च न प्रसज्यते, निश्चित अर्थात्- साधारणतया स्वयमेव तत्त्व स्वरूप जानकर श्रद्धान करना निसर्गज और परोपदेश की अपेक्षा से होने वाला श्रद्धान अधिगमज कहलाता है। यथास्थित अर्थ (वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही होना) तत्त्वार्थ है- उन तत्त्वार्थों का जो श्रद्धान करना है उसे सम्यग्दर्शन के नाम से कहना चाहिए। क्योंकि उसी प्रकार से सम्यग्दर्शन का दोषरहित निरूपण आगे करेंगे। सम्यग्ज्ञान यहाँ पर सम्यग्ज्ञान का निरुक्तिलभ्य लक्षण कहते हैं- बाधा से, रहित होते हुए सर्व देश में, सर्वकाल में सर्व प्राणियों को, स्व को एवं अर्थ को आकार (विकल्प) सहित निश्चित रूप से जानना सम्यग्ज्ञान है और वह अनेक प्रकार का है॥२॥ परिच्छेद यानी अपनी प्रत्यक्षरूप ज्ञप्ति कराने वाले करणरूप ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं किन्तु फिर फलरूप ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान नहीं कहते। क्योंकि इस पद में दिये गये सम्यग्ज्ञान इस विशेषण से ज्ञान के फल का निराकरण किया गया है। ज्ञान का फल अनुमान से जानने योग्य है और परोक्ष है। आकार सहित भेद को ग्रहण करने वाला ही सम्यग्ज्ञान है। किंचित् प्रतिभासमान निराकार का ग्रहण करने वाला सम्यग्ज्ञान नहीं है- क्योंकि निराकार का ग्रहण करने वाला दर्शन होता है- उसका दर्शनोपयोग रूप से आगे कथन करेंगे। आकार का परिच्छेद इस पद से स्व आकार का ही परिच्छेद है- वा पर (अर्थ) के आकार का परिच्छेद ऐसी एकान्त अवधारणा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि स्वार्थाकार इस विशेषण से ज्ञान 'स्व वा अर्थ के आकार का परिच्छेद है'- इसका खण्डन कर दिया है और यह सिद्ध किया है कि ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है। 'निश्चित' इस विशेषण से संशय रूप वा अकिंचित्कर यानी कुछ भी प्रमिति को नहीं करने वाला ऐसा अनध्यवसाय रूप ज्ञान भी अपने और अर्थ के कुछ सच्चे झूठे आकारों को जान रहा है। इसको सम्यग्ज्ञानपने का प्रसंग न हो. जावे इसलिए निश्चित विशेषण दिया है अर्थात् निश्चित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, न कि संशय और अनध्यवसाय ज्ञान।