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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 273 सर्वस्याद्वादिनामेव प्रमाणतो मोक्षस्य सिद्धौ तत्राधिकृतस्य साधोरुपयोगस्वभावस्यासन्ननिर्वाणस्य प्रजातिशयवतो हितमुपलिप्सोः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य साक्षादसाक्षाद्वाप्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थप्रक्षीणकल्मषपरापर-गुरुप्रवाह-सभामधितिष्ठतो निर्वाणे विप्रतिपत्त्यभावात्तन्मार्गे विवादात् तत्प्रतिपित्साप्रतिबंधकविध्वंसात् साधीयसी, प्रतिपित्सा। सा च निर्वाणमार्गोपदेशस्य प्रवर्तिका। सत्यामेव तस्यां प्रतिपाद्यस्य तत्प्रतिपादकस्य यथोक्तस्यादिसूत्रप्रवर्तकत्वोपपत्तेरन्यथा तदप्रवर्तनादिति प्रतिपत्तव्यं प्रमाणबलायत्तत्वात् / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥१॥ तत्र सम्यग्दर्शनस्य कारणभेदलक्षणानां वक्ष्यमाणत्वादिहोद्देशमात्रमाह; प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्यं रूपमात्मनः / यथास्थितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुद्दिशेत् // 1 // प्रणिधानं विशुद्धमध्यवसानं, तस्य विशेषः परोपदेशानपेक्षत्वं तदपेक्षत्वं च, तस्मादुत्था यस्य तत्प्रणिधानविशेषोत्थं / द्वे विधे प्रकारौ निसर्गाधिगमजविकल्पाद्यस्य तद्विविधं, तस्य भावो सर्व स्याद्वादियों के प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम प्रमाण) से मोक्ष की सिद्धि हो जाने पर उस मोक्षमार्ग में अधिकृत उपयोगस्वभावी, आसन्न (निकट) मोक्ष में जाने वाले, प्रज्ञावान, हित के इच्छुक, कल्याण मार्ग में सम्बन्ध रखने वाले और प्रत्यक्ष वा अनुमान से प्रबुद्ध अशेष तत्त्वार्थ से प्रक्षीण हो गये हैं सर्व कल्मष जिनके, ऐसे पर-अपर गुरुओं की प्रवाहसभा में निष्ठा रखने वाले साधु पुरुष के निर्वाण के प्रति अविवाद होने से तथा मोक्षमार्ग के प्रति विवाद होने से, मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा के प्रतिबन्धक (मिथ्यादर्शन आदि) का ध्वंस (नाश) हो जाने से मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा उत्पन्न होती है और वह मोक्षमार्ग की जिज्ञासा ही निर्वाणमार्ग के उपदेश की प्रवर्तिका है। प्रतिपादक (गुरु) को प्रतिपाद्य (शिष्य) के मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा जागृत होने पर ही यथोक्त (सम्यग्दर्शनादि) आदि के सूत्र का प्रवर्तकपना ठीक सिद्ध हो जाता है, मोक्षमार्ग की जिज्ञासा नहीं होने पर आदिसूत्र की रचना नहीं होती- इस प्रकार अनुमान प्रमाण के बल से जानना चाहिए। . सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का समुदाय मोक्षमार्ग है, (मोक्ष प्राप्ति का उपाय है)॥१॥ इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के कारण, भेद, लक्षण आदि का आगे वर्णन करेंगे। यहाँ इस के उद्देश (नाम) मात्र का कथन किया जा रहा है। सो ही कहते हैंसम्यग्दर्शन प्रणिधान (स्वच्छ चित्त की एकाग्रता के) विशेष से उत्पन्न द्वैविध्य रूप आत्मा के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है॥१॥ .. प्रणिधान, उपयोग, विशुद्ध अध्यवसान ये एकार्थवाची हैं। प्रणिधान विशेष यानी परोपदेश अपेक्षा वा परोपदेश की अपेक्षा बिना उत्पत्ति है जिसकी उसको प्रणिधानविशेष से उत्पन्न कहते हैं। वैविध दो प्रकार-निसर्गज और अधिगमज़ हैं जिसके, उसे द्विविध कहते हैं। द्विविध का भाव द्वैविध्य कहलाता है। प्रणिधानविशेष से उत्पन्न द्वैविध्य जिसके होता है वह है प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्य। प्रणिधान विशेष से उत्पन्न निसर्गज और अधिगमज भाव आत्मा का स्वरूप है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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