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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२७५ इति विशेषणात् / विपर्ययात्मा स तथा स्यादिति चेन्न, बाधवर्जित इति वचनात् / बाधकोत्पत्तेः पूर्वं स एव तथा प्रसक्त इति चेन्न, सदेति विशेषणात् / क्वचिद्विपरीतस्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो देशांतरगतस्य सर्वदा तद्देशमवाप्नुवतः सदा बाधवर्जितः सम्यग्ज्ञानं भवेदिति च न शंकनीयं सर्वत्रेति वचनात् / कस्यचिदतिमूढमानसः सदा सर्वत्र बाधकरहितोऽपि सोऽस्तीति तदवस्थोऽतिप्रसंग इति चेत्र, सर्वस्येति वचनात् / तदेकमेव सम्यग्ज्ञानमिति च प्रक्षिप्तमनेकथेति वचनात् / तत्र निश्चितत्वादिविशेषणत्वं सम्यग्ग्रहणाल्लब्धं / स्वार्थाकारपरिच्छेदस्तु ज्ञानग्रहणात् तद्विपरीतस्य ज्ञानत्वायोगात्। स्वपर परिच्छेदक विपरीत ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, बाधवर्जित विशेषण होने से। ज्ञान का बाधवर्जित यह विशेषण विपरीत ज्ञान का निराकरण करने के लिए है। सदा (सर्वकाल) इस विशेषण से किसी काल में ज्ञान में कभी बाधा की उत्पत्ति (विपरीतता) का खण्डन किया गया किसी देश में और अर्थ के आकार को परिच्छेद करने वाला निश्चयात्मक विपरीत ज्ञान हुआ और वह मनुष्य तत्काल देशान्तर को चला गया और कभी लौट कर नहीं आया, ऐसी दशा में ‘बाधावर्जित' विशेषण भी घट गया तब तो वह भ्रमज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाना चाहिए अर्थात् किसी देश की अपेक्षा विपरीत अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि 'सर्वत्र' इस वचन से किसी देश में होने वाला विपरीत ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता है। अतः सर्वकाल, सर्व क्षेत्र और सर्व प्राणियों में बाधा रहित निश्चित स्वार्थाकार का ग्रहण करने वाला ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, अन्य नहीं। किसी मूढमति को सदा सर्वत्र बाधकरहित भी विपरीत ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाएगा, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि 'सर्वस्य' इस विशेषण से उसका निराकरण किया गया है। इसमें निश्चित एवं बाधावर्जित यह पद सम्यग् शब्द से ग्रहण होते हैं और ज्ञानग्रहण से स्वार्थाकार के ज्ञान का ग्रहण होता है अर्थात् सम्यग्, निश्चित, संशय विपर्यय रहित 'ज्ञान' स्वार्थाकार परिच्छेद ही सम्यग्ज्ञान है। इससे विपरीत (अनिश्चित, बाधा सहित, स्वार्थाकार का अपरिच्छेद) में ज्ञानत्व का अयोग हैअर्थात् वह ज्ञान नहीं हो सकता। जो स्वार्थाकार का परिच्छेदक नहीं है, संशयादि बाधाओं से युक्त है- वह अज्ञान है ज्ञान नहीं है। जो ज्ञान को एक ही मानता है उसका निराकरण करने के लिए अनेक यह विशेषण दिया गया है। मोक्षमार्ग के प्रकरण में सूत्र में कथित सम्यग्ज्ञान शब्द से ही सम्यग्ज्ञान का लक्षणं निकल जाता है। निश्चितपना, बाधारहितपना 'सम्यग्' इस विशेषण से प्राप्त होते हैं और ज्ञान के ग्रहण से स्वपर अर्थ के आकार का परिच्छेद करना अर्थ निकलता है। जो समीचीन से विपरीत है, उसके ज्ञानत्व का अयोग है। 1. सामान्यतः ज्ञान एक होते हए भी मति आदि के भेद से अनेक प्रकार का है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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