________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 271 कस्यचिदुत्पद्यत इति समर्थयिष्यमाणत्वात् तत्सिद्धिः / प्रकृतहेतोः कुंभकारचक्रादिभ्रांत्यानैकांतः, स्वकारणस्य कुंभकारस्य व्यापारस्य निवृत्तावपि तदनिवृत्तिदर्शनात्, इति चेत् न कुंभकारचक्रादिभ्रांत्यानैकांतसंभवः। तत्कारणस्य वेगस्य भावे तस्याः समुद्भवात् / / 255 / / न हि सर्वा चक्रादिभ्रांति: कुंभकारकरव्यापारकारणिका, प्रथमाया एव तस्यास्तथाभावात्, उत्तरोत्तरभ्रांते: पूर्वपूर्वभ्रांत्याहितवेगकृतत्वावलोकनात् / न चोत्तरा तद्भ्रान्तिः स्वकारणस्य वेगस्या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध से समरस रूप होने वाली भावना के बल से किसी आत्मा के कर्मों की निवृत्ति हो जाती है। इसका समर्थन आगे के सूत्र में करेंगे। भावार्थ- घटीयंत्र की प्रवृत्ति के रोकने का कारण अरहट के भ्रमण की निवृत्ति है और अरहट के भ्रमण की निवृत्ति का कारण बैल के घूमने की निवृत्ति होना है। यह दृष्टान्त है। दार्टान्त में भी शारीरिक, मानसिक दुःखों की निवृत्ति का कारण चतुर्गति में भ्रमण की निवृत्ति है और चतुर्गति के भ्रमण की निवृत्ति का कारण ज्ञानावरण आदि कर्मों का नाश है तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना से होता है। अतः कारणों की निवृत्ति से कार्य की निवृत्ति होना सिद्ध होता है। - शंका- कारण के भ्रमण की निवृत्ति हो जाने से कार्य के भ्रमण की निवृत्ति को सिद्ध करने वाले प्रकरण में प्राप्त हेतु का कुम्भकार के चक्रादि की भ्रान्ति के साथ अनैकान्तिक होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है। क्योंकि चक्र के घूमने के स्व कारण कुम्भकार के हस्तव्यापार आदि की निवृत्ति हो जाने पर भी चक्र के घूमने की निवृत्ति नहीं देखी जाती है अर्थात् चक्र का घूमना बन्द नहीं होता है। उत्तरऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं ... कुम्भकार के चक्र या बालकों के खेलने के लट्ट आदि के भ्रमण द्वारा कारण के निवृत्ति रूप हेतु का व्यभिचार होना संभव नहीं है। क्योंकि उस कुम्भकार के चाक आदि के घूमने का कारण उनमें भरा हुआ वेग है। उस वेग के सद्भाव में ही चक्र वा लट्ट् घूमता रहता है। चक्र का भ्रमण कारण (कुम्हार) के अभाव में भी होता रहता है॥२५५॥ - चक्र का आगे, पीछे, बीच में सर्वभ्रमण कुम्भकार के हस्तव्यापार के कारण ही होता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि सर्वप्रथम भ्रमण कुम्भकार के हस्तव्यापार से हुआ है, और आगे-आगे होने वाला चक्र का भ्रमण पूर्व-पूर्व भ्रमण से प्राप्त वेग के द्वारा (पूर्व संस्कार के द्वारा) उत्पन्न हुआ देखा जाता है। क्योंकि वह आगे-आगे होने वाला चक्र का भ्रमण (घूमना) अपने कारण वेग के न होने पर बराबर उत्पन्न हो जाता है, ऐसा नहीं है क्योंकि पूर्व संस्कार जनित वेग के सद्भाव में ही, हस्त का व्यापार नहीं होते हुए भी, चक्र के भविष्य के परिभ्रमणों की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए चक्र के परिभ्रमण से उपरिकथित हेतु अनैकान्तिक नहीं हो सकता है।