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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 270 तन्निवृत्तिः कुत इति चेत्, स्वकारणस्य कर्मोदयभ्रमणस्य निवृत्तेः / बलीवर्दभ्रमणस्य निवृत्ती तत्कार्यारगर्तभ्रमणनिवृत्तिवत् / न च चतुर्गत्यरगर्तभ्रमणं कर्मोदयभ्रमणनिमित्तमित्यसिद्धं दृष्टकारणव्यभिचारे सति तस्य कदाचिद्भावात्। तस्याकारणत्वे दृष्टकारणत्वे वा तदयोगात्। तन्निवृत्तिः पुनस्तत्कारणमिथ्यादर्शनादीनां सम्यग्दर्शनादिप्रतिपक्षभावनासात्मीभावात् उसी प्रकार नरक गति सम्बन्धी मारण, ताड़न, शूलारोहण, कुंभीपाक आदि दुःखों की उत्पत्ति नरकगति में जाने से ही होती है। अत: शारीरिक, मानसिक दुःख बिना कारण नहीं होते हैं। तथा चारों गतियों में भ्रमण कर्मों के उदय से होता है। जैसे अरहट का परिभ्रमण बैल के कारण होता है। नाना परिणाम परिवर्तन होने पर ही दुःखों का वेदन होता है। शंका- अरहट के भ्रमण की निवृत्ति या संसारभ्रमण की निवृत्ति किससे होती है? संसार परिभ्रमण की निवृत्ति का उपाय उत्तर- चारों गतियों में भ्रमण का कारण है- स्वकीय कर्मों का उदय। उन कर्मों के उदय का अभाव हो जाने से चारों गतियों के चक्रभ्रमण की निवृत्ति हो जाती है। जैसे बलीवर्द (बैल) के भ्रमण का अभाव हो जाने पर चक्र के भ्रमण का भी अभाव हो जाता है अर्थात् बैल के भ्रमण का कार्य था- गड्ढे में स्थित चक्र का घूमना। बैल के घूमने रूप कारण के अभाव में उसके कार्य रूप (गड्ढे में स्थित) चक्र का घूमना बन्द हो जाता है। चार गति रूप चार अर वाले गड्ढे के चक्रभ्रमण का निमित्त कारण कर्मों का उदय है, वह असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर दृष्ट कारण के साथ व्यभिचार आता है। अर्थात् सांसारिक सुखदुःखों का शरीर, पुत्र, धन आदि के साथ अन्वयव्यतिरेक नहीं है। (क्योंकि कोई प्राणी नीरोग शरीरी और धनाढ्य होते हुए भी इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि दुःखों से दु:खी है। तपस्वी, संयमी धन, पुत्रपौत्र आदि के अभाव में भी सुखी हैं) इत्यादि दृष्टान्तों से दृष्ट सामग्री का लौकिक सुख-दुःखों से व्यभिचार देखा जाता है। तिर्यश्च आदि गति में होने वाले भिन्न-भिन्न जाति के अनेक दुःखों को भोगते हुए वे परिभ्रमण कभी-कभी होते हैं। भावार्थ- यह जीव कभी नरक गति के दुःखों को भोगता है और कभी तिर्यश्च, मनुष्य और देव गति के दुःखों को भोगता है। अतः ये दुःख कभी-कभी होते हैं और जो कभी-कभी होता है, वह अकारण नहीं होता है। उन कादाचित्क कार्यों को अकारण मानने पर उनके नित्यता का प्रसंग आता है। तथा उनको अकारण मानने पर दृष्ट कारणों के साथ व्यभिचार आता है अथवा परिभ्रमण के अभाव में दुःख आदि के वेदन होने का अयोग है। शंका- उन परिभ्रमण के कारणों की निवृत्ति कैसे होती है? . उत्तर- कर्मों के आगमन के कारणभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के प्रतिपक्षी
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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