________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक- 269 दृष्टांतदार्टीतिकयोरागमात्संप्रत्ययप्रसिद्धः / सामान्यतो दृष्टानुमानाच्च निर्वाणं प्रतीयते / तथाहि शारीरमानसासातप्रवृत्तिर्विनिवर्तते। क्वचित्तत्कारणाभावाद् घटीयंत्रप्रवृत्तिवत् // 254 // यथा घटीयंत्रस्य प्रवृत्तिभ्रमणलक्षणा स्वकारणस्यारगर्तभ्रमणस्य विनिवृत्तेनिवर्तते तथा कचिजीवे शारीरमानसासातप्रवृत्तिरपि चतुर्गत्यरगर्तभ्रमणस्य / तत्तत्कारणं कुत इति चेत्, तद्भाव एव भावाच्छारीरमानसासातभ्रमणस्य / न हि तच्चतुर्गत्यरगर्तभ्रमणाभावे संभवति। मनुष्यस्य मनुष्यगतिबाल्यादिविवर्तपरावर्तने सत्येव तस्योपलंभात् / तद्वत्तिर्यक्सुरनारकाणामपि। यथा स्वतिर्यग्गत्यादिषु नानापरिणामप्रवर्तने सति तत्तत्संवेदनं इति न तस्य तदकारणत्वम्। आगम से निर्णय करने के लिए दिया गया, सूर्य चन्द्रमा आदिक ग्रहणों के आकारभेद रूप यह दृष्टान्त (उदाहरण) विषम कथन नहीं है। क्योंकि दृष्टान्त रूप सूर्यादि ग्रहणों का आकारभेद और दृष्टान्त का उपमेय मोक्ष रूप दान्तिक का प्रमाणत्व आगम से भलेप्रकार सिद्ध है। ... अनुमान प्रमाण से मोक्ष की सिद्धि - मोक्ष को आगम से सिद्ध करके अब जैनाचार्य इसे अनुमान से सिद्ध करते हैं- नैयायिकों ने तीन प्रकार का अनुमान माना है (1) पूर्ववत् (2) शेषवत् और (3) सामान्यतो दृष्ट। उसमें सामान्यतः दृष्ट (अन्वयव्यतिरेक) अनुमान से निर्वाण की प्रतीति होती है- उसी को आचार्य स्पष्ट करते हैं। किसी भव्यात्मा में शारीरिक, मानसिक असाता रूप प्रवृत्ति अतिशयपने से निवृत्त हो जाती है। क्योंकि असाता आदि दुःखों के कारणभूत ज्ञानावरण दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों का अभाव हो गया है। जैसे घटीयंत्र के परिभ्रमण की कारणभूत कील आदि का अभाव होने से उसका परिभ्रमण रुक जाता है।।२५४ // जैसे भ्रमणलक्षण (भ्रमण करना ही जिसका लक्षण है ऐसे) घटीयंत्र की प्रवृत्ति स्वकीय कारणभूत कील के निकलने या बैल के भ्रमण की निवृत्ति हो जाने से, निवृत्त हो जाती है यानी घटीयंत्र का घूमना बंद हो जाता है, उसी प्रकार किसी मुक्त जीव में शरीर सम्बन्धी और मन सम्बन्धी असाता रूप दुःखों की प्रवृत्ति भी चार गति रूप धुरे के भ्रमण की निवृत्ति हो जाने से निवृत्त हो जाती है। क्योंकि जैसे घटीमाला के घूमने का कारण गड्डे में घूमने वाला चार आरों से युक्त चक्का है, वैसे ही संसार के दुःखों का कारण चार गतियों में भ्रमण करना है। शंका- चारों गतियों में भ्रमण ही दुःख का कारण है, यह कैसे जाना जाता है? उत्तर- चार गति रूप धुरा के घूमने पर ही शारीरिक, मानसिक आदि वेदना रूपी घटी यंत्र का भ्रमण होता है। और चतुर्गति रूपी चक्र के रुक जाने पर शारीरिक, मानसिक, असाता वेदनीय जन्य दुःखों की निवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार चतुर्गति भ्रमण के साथ शारीरिक, मानसिक दुःखों का अन्वयव्यतिरेक' है। नारक आदि चारों गतियों में भ्रमण करने पर ही शरीर और मन सम्बन्धी दु:खों की उत्पत्ति होती रहती है और उस चारगति भ्रमण रूप चक्र के रुक जाने पर आधियाँव्याधियाँ भी नष्ट हो जाती हैं। जैसे मनुष्यों के मनुष्यंगति में होने वाले बालक, कुमार, वृद्ध आदि अवस्थाओं के परावर्तन होने पर ही आधि-व्याधि, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि दुःखों की उपलब्धि होती है, तिर्यंच गति में छेदन, भेदन, भारवहन आदि दुःख भी तिर्यंचभवों में परावर्तन करने पर ही होते हैं, वैसे ही देवगति में देवों के देवायु कर्म की पराधीनता से इष्टवियोग, माला मुरझाना, देवों की पराधीनता आदि के दुःख देवगति में परावर्तन करने पर ही होते हैं, अन्यथा नहीं। 1. जिसके होने पर जो होता है उसको अन्वय कहते हैं और जिसके नहीं होने पर नहीं होता है उसको व्यतिरेक कहते हैं।